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जहां साधुता सिसकती है
हमारी दोनों आंखें इस जगत को देखती है, तब भेद ही भेद नजर आता है। अभेद खोजने पर मिलता है और मिलता है तो आश्चर्य भी होता है। भेद में कोई आश्चर्य नहीं होता।
हम जिस जगत में जीते हैं, वह स्थूल है। जिस जगत् को हमारी इन्द्रिया देख रही हैं, वह भी स्थूल है। स्थूल का अर्थ होता है भेद। हम भेद को ही पकड़ पाते हैं। भेद में कम से कम तीन भूमिकाएं की जा सकती है-आदि, मध्य
और अन्तिम। दुनिया के प्रत्येक पदार्थ में तारतम्य है, भूमिका-भेद है। मकान, पहाड़, नदी और पेड़-इन सबमें तारतम्य है, मनुष्य-मनुष्य में भी तारतम्य स्पष्ट दिखाई देता है। जिन्होंने घर छोड़ दिया, जो साधु बन गए, उनमें भी बहुत तारतम्य होता है।
साधु बनना एक बात है किन्तु साधु बनने के बाद उसकी जो भूमिकाएं हैं, उन पर ध्यान केन्द्रित होना, उनका सम्यक निर्वहन करना बिल्कुल दूसरी बात है। सब साधु समान नहीं होते। वे व्यक्ति धोखे में रहते हैं, जो सब साधुओं को समान मान लेते हैं। एक साधु दूज के चांद जैसा होता है और एक साधु पूनम के चांद जैसा होता है। इस भूमिका-भेद या तरतमता को समझना आवश्यक है। इस भूमिका-भेद का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है तो व्यक्ति भ्रांति का जीवन जीता है। जब कभी यह भ्रान्ति टूटती है, व्यक्ति को कष्ट होता है। वह अनास्था से भर जाता है, विचलित हो जाता है किन्तु यदि यह तरतमता स्पष्ट ज्ञात होती है तो व्यक्ति भ्रान्ति में नहीं उलझता, उसकी आस्था विचलित नहीं होती। मुनिः तीन श्रेणियां
साधना के स्तर पर साधु की कई भूमिकाएं हैं। भगवान महावीर ने मुनि को तीन श्रेणियों में विभक्त किया--भिक्षु कौन होता है? पूजनीय साधु कौन होता है? पापश्रमण कौन होता है? पापश्रमण का अर्थ है दुष्ट साधु, स्खलना करने वाला, दोषपूर्ण जीवन जीने वाला मुनि। इन प्रश्नों के आधार पर भगवान् महावीर ने तीन तालिकाओं को निर्माण किया० जो साधु की न्यूनतम आचार-संहिता का पालन करता है, वह भिक्षु होता है। ० जो साधु की आचार-संहिता का सजगता से पालन करता है, निरन्तर अप्रमाद का जीवन जीता है, वह पूजनीय साधु होता है। ० जो साधु की न्यूनतम आचार-संहिता का अतिक्रमण करता है, उसका सम्यग पालन नहीं करता, सतत प्रमाद का जीवन जीता है, वह पापश्रमण होता है।
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