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________________ ब्रह्मचर्य के साधक-बाधक तत्त्व २१३ सचाई को जानता है। ब्रह्मचर्य पर सबसे अधिक बल भगवान महावीर ने दिया। महावीर ने सब विचारों का सार प्रस्तुत किया, निमित्तों का भी और उपादान का भी। इस संदर्भ में एक बात कहने में संकोच नहीं होता-आज जितना ध्यान केवल निमित्तों पर है उतना उपादान पर नहीं दिया जा रहा है। मानसिक शुद्धि कैसे करें? मन पवित्र कैसे बना रहे? इस पर बहुत ध्यान नहीं दिया जा रहा है इसलिए जितना विकास होना चाहिए उतना नहीं हो पा रहा है। ब्रह्मचर्य : परिणाम ब्रह्मचर्य का लाभ है-प्रतिभा का विकास । ब्रह्मचर्य का लाभ है-धृति का विकास। बहुत बार प्रश्न होता है-गांधी जैसा दुबला-पतला आदमी, इतने कष्ट कैसे सहे? इतने विरोध का सामना कैसे किया? उनमें इतनी धृति का विकास कैसे हुआ? यह स्वीकार करना चाहिए-जैसे-जैसे ब्रह्मचर्य की आन्तरिक साधना परिपक्व होती है वैसे-वैसे धृति का विकास होता है, प्रतिभा का विकास होता है। ब्रह्मचर्य से सिद्ध होता है—प्रातिभ ज्ञान, धृति, अपने मन एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण करने की क्षमता। शरीर के विकास के साथ-साथ इन आन्तरिक शक्तियों के विकास का सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता। आराधना साधक तत्त्वों की भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य के साधक-बाधक तत्त्वों की सुन्दर विवेचना की है। हम बाधक तत्त्वों का निरसन कर साधक तत्त्वों की आराधना करें। निमित्तों का निरन्तर ध्यान रखते हुए उपादान की दिशा में अपनी यात्रा को आगे बढ़ाएं। इससे चित्त और अन्तःकरण की निर्मलता बढ़ती चली जाएगी। इसके लिए प्रयोग भी बहुत अपेक्षित हैं। शरीर-शास्त्र का अध्ययन करने वाला व्यक्ति जानता है-वृत्ति कहां पैदा होती है? कौन उसे उभारता है? उसकी क्रियान्विति कहां होती है और उसके निवारण के कौन-कौन-से स्थान हैं? इनके बारे में जितनी स्पष्ट जानकारी आज मिल रही है शायद उतनी पहले भी थी, यह नहीं कहा जा सकता। इन शताब्दियों में तो ऐसा युग आया कि इन नियमों की जानकारी बहुत कम रह गई। इस विषय को एक प्रकार से लज्जनीय विषय मान लिया गया। जानकारी के अभाव में भी समस्याएं पैदा होती हैं। आचार्य भिक्षु ने 'शील की नवबाड़' ग्रन्थ लिखा। उस ग्रन्थ में ब्रह्मचर्य के साधक-बाधक तत्त्वों का सुन्दर विश्लेषण है। ब्रह्मचर्य : ध्यान के प्रयोग ब्रह्मचर्य के विकास में ध्यान के कुछ प्रयोग बहुत उपयोगी हैं। हम आनन्द केन्द्र पर अहं का ध्यान करते हैं। आज वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह माना जाने लगा है कि इससे वृत्तियों पर नियन्त्रण होता है। दर्शन केन्द्र, ज्योति केन्द्र-ये सारे नियन्त्रण करने वाले केन्द्र हैं। इन पर ध्यान करने से वृत्तियों का दमन नहीं, उदात्तीकरण होता है। दमन करना, रोकना एक बात है। उदात्तीकरण उस से बिल्कुल भिन्न है। प्रश्न है-क्या दस-बीस या पचास वर्ष बीत जाने पर, भी केवल नियंत्रण की ही बात रहेगी? इस दिशा में विकास होना चाहिए। हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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