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________________ २०७ साधुत्व की कसौटी होगा-साधुओं का टोला होता भी है और नहीं भी। 'साधु अकेला चलना जानता है' इस दृष्टि से उनका कोई टोला नहीं होता। लेकिन यह भी सत्य है जो अकेला चलना जानता है, वही वास्तव में टोला बनाने का अधिकारी हो सकता है। जो अकेला चलना ही नहीं जानते, उनका टोला बनता भी है तो वह लम्बे समय तक टिक नहीं सकता। साधुता की महत्त्वपूर्ण कसौटी है-अकेला चलना। राग-द्वेष मुक्त होना, इसका अर्थ है अकेला होना। आचारांग सूत्र में मुनि का एक विशेषण है-'ओए'-ओज। इसका अर्थ है-अकेला होना। जब-जब राग-द्वेष आता है, व्यक्ति अकेला नहीं रहता। राग और द्वेष-ये दो साथी बने हुए हैं। राग-द्वेष छूटे और व्यक्ति अकेला रह गया। राग और द्वेष-दोनों आदिकाल से हमारे साथी बने हुए हैं। इनका साथ छूटने पर बचता कौन है? व्यक्ति यह सोचे-चाहे मैं कितने ही व्यक्तियों के साथ रहा हूं पर वास्तव में अकेला हूं। यह सूत्र जितना स्पष्ट रहेगा, जीवन में कोई खतरा आयेगा ही नहीं। दो शब्द हैं-द्वन्द्व और निर्द्वन्द्व। आचार्य भिक्षु का प्रसिद्ध वाक्य है-गण में रहूं निरदाव अकेलो। जो द्वन्द्व में उलझ गया, वह खतरे की ओर बढ़ता चला जाएगा। जिन्होंने वास्तव में अकेलेपन का अनुभव किया है, उन्होंने साधुता के मर्म को समझा है। अव्यग्र मन साधुता की दूसरी कसौटी है-अव्यग्र मन। चित्त की दो प्रकार की अवस्थाएं हैं-व्यग्र और अव्यग्र। मन चारों ओर भटकता रहता है। यह उसकी व्यग्रता है। वह एक बिन्दु पर केन्द्रित हो गया, इसका अर्थ है-एकाग्र मन। हम रूपक की भाषा में समझें-बछडा इधर-उधर चक्कर लगा रहा है. कद-फांद कर रहा है, इसका तात्पर्य है-व्यग्र मन। उसे एक खूटे से बांध दिया। वह केवल उसकी ही परिक्रमा कर पाएगा, इसका तात्पर्य है एकाग्र मन-इधर-उधर भटकते हुए मन को एक स्थान पर केन्द्रित कर देना। मुनि का विश्लेषण है-अबहिल्लेसे-उसकी लेश्या बाहर नहीं जाए, भीतर रहे। जिसने लेश्या को भीतर बांध दिया, वह अव्यग्र हो गया। जिसने मन की एकाग्रता को नहीं साधा, उसने साधना के मर्म को नहीं समझा। मन में चंचलता और विक्षेप न आए, यह साधना की कसौटी है। एक भाई ने पूछा-'महाराज! आपको साधु बने कितने वर्ष हुए हैं?' मुनिजी ने उत्तर दिया-'पन्द्रह वर्ष ।' उस भाई का अगला प्रश्न था— 'आप कहां तक पहुंचे हैं?' यह प्रश्न प्रत्येक साधनाशील व्यक्ति के सामने है-वह कहां तक पहुंचा है? अभी वह कहां है और पहले वह कहां था। पांच वर्ष की साधना कर वह कहां तक पहुंचा? दस वर्ष बाद कहा तक पहुंचा? जिस साधक ने मन की एकाग्रता को साधा है, वही व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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