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________________ २०४ महावीर का पुनर्जन्म बहवे इसे असाहू, लोए वुच्चति साहुणो। न लवे असाहु साहु त्ति साहु साहु त्ति आलवे ।। नाणदंसणसंपन्न, संजमे य तवे रयं। एवं गुणसमाउत्तं, संजय साहुमालवे।। इस लोक में बहुत असाधु हैं, जिन्हें लोक में साधु माना जाता है। तुम असाधु को साधु मत कहो। जो ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न हैं, संयम और तप में रत हैं, वे साधु हैं। साधु कौन? कौन साधु है और कौन असाधु? आज यह प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है। जैन परम्परा के साधु भारतीय परम्परा के निराले साधु रहे हैं। इस तथ्य को जैन ही नहीं, सभी धर्मों के लोग स्वीकार करते हैं। जैन साधु की जितनी तपस्या और त्याग है, वह विस्मयकारी है लेकिन आज स्थिति चिन्तनीय बन गई है इसीलिए साधुता की कसौटी का निर्धारण अधिक प्रासंगिक बन गया है। जैन मुनि की एक पहचान बनी हुई है-जैन मुनि रुपया-पैसा नहीं रखता। वह सर्वथा अकिञ्चन और अपरिग्रही होता है। आज यह पहचान कुछ धुंधली बन रही है। दूसरे धर्म-सम्प्रदायों में यह माना जाता था जिसके पास जितना अधिक पैसा है, जितना बड़ा मठ है, वह उतना ही बड़ा संन्यासी है। लेकिन जैन धर्म में साधु का मानदण्ड यह कभी नहीं रहा। ऐसा लगता है-जैन परम्परा में भी आज यह दरवाजा खुलना शुरू हो रहा है। अनेक जैन साधु रुपये-पैसे बटोरने में लगे हुए हैं। एक क्रम शुरू हुआ है-खुले आम पैसा इकट्ठा करना, बैंक बैलेंस रखना, घर-घर जाकर रुपये मांगना। लगता है-कुछ संकोच रहा ही नहीं। मुनि यह नहीं सोच पा रहे हैं-मैं जैन मुनि हूं, 'समणोऽहं'-मैं समण हूं, अपरिग्रही और अकिंचन हूं, मुझे पैसे को छूना भी नहीं है। इस अवस्था में साधु के सामने कसौटी का होना आवश्यक ही नहीं. अनिवार्य है और उन कसौटियों को जानना एक श्रावक के लिए भी अनिवार्य हो गया है। एक श्रावक ने कहा-'महाराज! अमुक मुनि हमारे घर आए। उन्होंने रुपये मांगे। हमारी इच्छा तो नहीं थी रुपये देने की पर संकोचवश उनको कुछ रुपये दे दिए।' उसके पास खड़े एक व्यक्ति ने कहा—'यह तुमने अच्छा नहीं किया। तुम्हें यह कहना चाहिए था—यदि आप साधुवेश को छोड़ दें तो आपको सौ के स्थान पर हजार रुपये दे दूंगा पर इस वेश में रुपये मांगकर साधुत्व को लज्जित न करें।' __ समस्या यह है-साधुत्व का वेश छोड़ दे तो रुपया न मिले और जैन साध के वेश में रुपया मांगे, यह लज्जास्पद बात है। यह आज एक ज्वलंत प्रश्न बन रहा है। यदि इस पर श्रावक समाज ने ध्यान नहीं दिया तो शायद साधु समाज को डुबोने वाला कहलाएगा श्रावक समाज। आचार्य भिक्षु का यह श्लोक कितना मार्मिक है साध ने डुबोया श्रावकां, श्रावकों ने डुबोया साध। दोनूं डूबा बापड़ा, श्रीजिनवयण विराध ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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