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________________ ३१ साधुत्व की कसौटी आचार्य की सन्निधि में ध्यान का प्रयोग शुरू हुआ। ध्यान के प्रारम्भ में एक सूत्र दिया गया-'क्वाहं' मैं कहां हूं, इस विषय पर विचय करो। इस पहेली को बुझाओ कि मैं कहां हूं। 'मैं कौन हूं'-कोऽहं के स्थान पर मैं कहीं हूं-क्वाऽहं का ध्यान। आधा घंटा बीता, ध्यान सम्पन्न हो गया। शिष्य ने जिज्ञासा की प्रश्नः कोऽहमिति ख्यातः, क्वाहमित्यस्ति नो श्रुतः। 'गुरुदेव! मैं कौन हूं, इस प्रश्न को अनेक बार सुना पर मैं कहां हूं, यह नवीन प्रश्न है। मैं कहां हूं, इसमें खोजना क्या है? सबका अपना-अपना स्थान है, अपना-अपना घर है, अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। प्रत्येक व्यक्ति जानता है-मैं कहा हूं, फिर यह प्रश्न प्रस्तुत क्यों किया?' । आचार्य ने कहा- 'वत्स! मैं कौन हूं, यह जानना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी यह जानना है कि मैं कहा हूं। मैं कहां हूं यह जाने बिना व्यक्ति यह निश्चय कैसे करेगा कि मुझे कहा जाना है। व्यक्ति की चेतना कहीं है, इसी के आधार पर समझा जा सकता है कि वह कौन है?' एक प्रश्न है-साधु कौन है? तैजसकेन्द्र का अतिक्रमण करके ही कोई व्यक्ति साधु बन सकता है, सम्यक्दृष्टि बन सकता है, श्रावक या धार्मिक बन सकता है-तैजसं समतिक्रम्य, चैतन्यं साधुता व्रजेत्। जब तक चेतना तैजस केन्द्र के आसपास परिक्रमा करती रहेगी तब तक व्यक्ति मिथ्यादृष्टि बना रहेगा, उसका कषाय प्रबल बना रहेगा, वह क्रोधी, अहंकारी और कामुक बना रहेगा। जब तक व्यक्ति यह नहीं जान लेता-मैं कहा हूं, मेरी चेतना कहां है, तब तक साधुता की बात समझ में नहीं आ सकती। कर्म के प्रकंपन हमारे शरीर में अनेक केन्द्र बने हुए हैं। जैन-दर्शन में कर्म के आठ प्रकार बतलाए गए हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि। ये सारे कर्म हमारे शरीर के भीतर हैं, कहीं बाहर, आकाश में टंगे हुए नहीं हैं। इस स्थूल शरीर के भीतर हैं। आठ कर्मों का एक संस्थान बना हुआ है। उस संस्थान का नाम है-कर्मशरीर। हमारी पूरी प्रवृत्तियों का संचालन वह संस्थान कर रहा है। कर्मशरीर के निर्देश आते हैं, उनके प्रकम्पन आते हैं, वे शरीर में आकर रसायन पैदा करते हैं। इस स्थूल शरीर में स्थान-स्थान पर चौकियां बनी हुई हैं। उन चौकियों पर निर्देश आता है और उनके द्वारा संचालन होता रहता है। कर्म की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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