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महावीर का पुनर्जन्म
भारतीय चिन्तन परम्परा में कर्मशास्त्र को बहुत मूल्य दिया गया है। यह बहुत बड़ा मनोविज्ञान-शास्त्र है। पश्चिम के मनोविज्ञान और भारतीय कर्मशास्त्र को एक ही शाखा निरूपित किया जा सकता है। कर्मशास्त्र की गहराई में जितने जैन आचार्य गए हैं, उतना कोई दर्शन नहीं जा पाया। कर्मशास्त्र गणित का इतना जटिल विषय है कि गणित का प्रखर विद्वान हुए बिना कर्मशास्त्र को समझ पाना ही कठिन है।
आचार्य ने शिष्य के प्रश्न को समाधान देते हुए कहा-काम मोह के द्वारा प्रवर्तित है और मोक्ष स्वभाव के द्वारा प्रवर्तित है। इस हेतु-भेद के कारण अर्थित्व का भेद होता है
मोहप्रवर्तितः कामः, मोक्षः स्वभाववर्तितः।
हेतुभेदेन चार्थिवभेदो लोके प्रविद्यते।। प्रेरणा और उसका हेतु
. व्यवहार, व्यवहार की प्रेरणा और प्रेरणा का हेतु-इन तीनों की मीमांसा आवश्यक है। काम की प्रेरणा और काम का व्यवहार-ये दो बातें ठीक हैं पर यह प्रेरणा क्यों जाग रही है? एक व्यक्ति के मन में काम की प्रेरणा जाग रही है
और दूसरे के मन में वह प्रेरणा नहीं जागती। इसका कारण क्या है? जिस व्यक्ति के अन्तःकरण में मोह प्रज्वलित होता है, उसमें काम की प्रेरणा जागती है। काम का व्यवहार, उसकी प्रेरणाा और उस प्रेरणा का हेतु मोह-ये तीन तत्व मिलते हैं तब पूरी बात समझ में आती है।
- इसी प्रकार मोक्ष का व्यापार और उसकी प्रेरणा का हेतु है आत्मा का स्वरूप-पारिणामिक भाव। मोक्ष की प्रेरणा तब जागती है जब पारिणामिक भाव प्रबल हो जाता है। पारिणामिक भाव ही जीव के जीवत्व को बनाए रखता है। वह शाश्वत है। यदि यह पारिणामिक भाव नहीं होता, जीवत्व की निरन्तरता ही होती तो मोक्ष की प्रेरणा जागती ही नहीं। औदयिक भाव अस्तित्व को इतना ढांक लेता कि कभी मोक्ष की बात उपजती ही नहीं किन्तु भीतर एक ज्योति निरन्तर जल रही है और वह ज्योति है जीव का पारिणामिक भाव। वह सदा अपने अस्तित्व को प्रगट करना चाहता है। उसे पुद्गल इष्ट नहीं है। वह पुद्गल को विजातीय मानता है। वह व्यक्ति को बार-बार सावधान करता है-तुम मानते हो, मैं भोग रहा हूं, तृप्त हो रहा हूं पर तुम इस सचाई पर ध्यान नहीं देते-तृप्त कौन हो रहा है? वस्तुतः तृप्त हो रहा है पुद्गल। यह मानना भ्रांति है कि मैं तृप्त हो रहा हूं। तुम इस सचाई को जानो-चारों ओर पुद्गल का साम्राज्य है। पुद्गल ही तृप्त हो रहा है और पुद्गल ही उसे तृप्त कर रहा है
पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्ति, यान्त्यात्मा पुनरात्मना।
परतृप्तिसमारोपः, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते।। कारण दुःख का
. आत्मा की भूख अलग प्रकार की है। उसकी भूख न भोजन से तृप्त होती है, न भोग से तृप्त होती है। इन सबसे आत्मा तृप्त नहीं होती किंतु ऐसा
समारोप कर दिया गया। जहां समारोप है वहां संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय Jain Education International For Private & Personal Use Only
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