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________________ मुक्ति की प्रेरणा १६१ होता है। आचारांग सूत्र में इस समारोप की ओर ध्यान खींचा गया है-तुम दुःख मिटाने के लिए कार्य कर रहे हो किन्तु और ज्यादा दुःखी बन रहे हो। आदमी सुख के लिए इतना खा लेता है कि वह दुःख का कारण बन जाता है। ज्ञानी के लिए ऐसा करना उचित नहीं है। ज्ञानी होना और तृप्ति का अनुभव करने वाला होना बिलकुल भिन्न तत्त्व है। ऐसा लगता है-हमारा स्वरूप ज्ञाता नहीं, भोक्ता का बन गया है। प्रसिद्ध सूक्त है-ज्ञानी जानता है और अज्ञानी भोगता है। अज्ञानी के लिए दुःख की चादर द्रोपदी के चीर जितनी लम्बी बन जाती है, जिसका कभी अन्त नहीं होता। अर्थित्व-भेद का कारण है हेतु का भेद। एक हेतु है कर्म और एक हेतु है स्वभाव। जीव पारिणामिक हमारा स्वभाव है। जब-जब वह प्रबल होता है, मोक्ष की प्रेरणा जागती है। जब-जब कर्म प्रबल होता है, तब-तब काम की प्रेरणा जागती है। भारतीय साहित्य एवं चिन्तन में दो मूल प्रेरणाएं रही हैं-काम की प्रेरणा और मोक्ष की प्रेरणा। धन तो काम की पूर्ति का साधन-मात्र है। पुरुषार्थ चतुष्टयी का प्रतिपादन किया गया-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। दो प्रेरणाएं हैं काम और मोक्ष। अर्थ काम की पूर्ति का साधन है और धर्म मोक्ष की पूर्ति का साधन। जब मोक्ष की प्रेरणा जागती है, काम की प्रेरणा सो जाती है। जब काम की प्रेरणा जागती है, मोक्ष की प्रेरणा सो जाती है। मोक्ष की प्रेरणा के जागने का अर्थ है-जीवन में धर्म का अवतरण। भृगु पंरपरा का चित्रण भारतीय जीवन में उस युग को देखें, जिस समय भृगुओं की परंपरा विकसित थी। महाभारत, मार्कण्डेय पुराण और उत्तराध्ययन में भृगु परंपरा का उल्लेख है। महाभारत में कहा गया-भृगु परंपरा ने श्रमण परंपरा, मोक्ष और आत्मा का समर्थन किया है। मार्कण्डेय पुराण में भी पिता और पुत्र का संवाद है। उसमें सारी लौकिक मान्यताओं का निरसन किया गया है। महाभारत शान्तिपर्व का प्रसंग है-उसमें भार्गव दानवों को संरक्षण देते थे। प्रश्न हुआ-सब देवताओं का सहयोग कर रहे थे और भार्गव दानवों को संरक्षण दे रहे थे? कहा गया-यह भृगु की पंरपरा है। दानव श्रमण जाति के लोग रहे हैं। बड़ी उच्च परंपरा रही है दानवों की। हम आज दानवों की बात छोड़ दें। एक समय था जब दानव उच्च, सभ्य और शिष्ट जाति थी। उसने आत्मा और मोक्ष की पंरपरा का उन्नयन किया था। यह एक तथ्य है-परास्त होने पर शब्द का अपकर्ष हो जाता है। आर्य शब्द का भी बहुत अपकर्ष हुआ है। उत्तराध्ययन का चौदहवां अध्ययन भृगुपुत्र का अध्ययन है। उसमें भारतीय दर्शन की दो परम्पराओं का चित्रण है और उस चित्रण में मोक्ष की प्रेरणा का स्वर प्रस्फुटित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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