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________________ १८८ महावीर का पुनर्जन्म 'क्या उसमें आग होती है?' 'नहीं।' 'अरणी की लकड़ी में आग नहीं होती। किन्तु दो अरणी की लकड़ियों का घर्षण करो, आग पैदा हो जायेगी। दूध में घी नहीं होता। उसे जमाओ, तपाओ, मथो, घी निकल आएगा। तिल में तेल कहां होता है? किन्तु उसको घाणी में पीलते ही तेल निकल आएगा। इस प्रकार इन भूतों में कोई आत्मा नहीं होती। ये पांच भूत मिलते हैं और भूतों का एक शरीर बन जाता है। वह एक दिन नष्ट हो जाता है। कोई भी आत्मा अमर नहीं है। शरीर के नष्ट होने के बाद उसका अस्तित्व नहीं रहता-' जहा य अग्गी अरणी उ संतो, खीरे घयं तेल्ल जहा तिलेसु। एमेव जाया! सरीरंसि अत्ता, समुच्छह नासइ नावचिठे।। पुत्र बोले-'पिताजी! आपने कैसे कहा कि आत्मा नहीं है।' 'कहां है आत्मा? यदि है तो दिखाओ?" 'पिताजी! आप इतने बुद्धिमान हैं, बहुत अनुभवी हैं। आप वृद्ध हैं, हम बच्चे हैं फिर भी आप हमें झूटी बात सिखला रहे हैं। आप कहते हैं-आत्मा को दिखलाओ। आत्मा अमूर्त है। वह कैसे दिखाई देगी? क्या आप इस नियम को नहीं जानते-अमूर्त वस्तु इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होती? किन्तु यह निश्चित है-आत्मा के आंतरिक दोष ही बंधन के हेतु हैं और बंधन संसार का हेतु है-' नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होई निच्चो। अज्झत्थहेउं निययस्य बंधो, संसारहेउं च वयंति बंध।। आइंस्टीन ने लिखा-हम वैज्ञानिक लोग अहंकार में चूर हो जाते हैं। हम इस बात को भूल जाते हैं, हमारी ज्ञान की सीमा कितनी छोटी है। आखिर हम उन इन्द्रियों पर ही निर्भर हैं, जो न जाने कितनी बार हमें धोखा देती हैं। भृगुपुत्र बोले-'पिताजी! इन्द्रियों की सीमित शक्ति के आधार पर आप यह कह रहे हैं-आत्मा नहीं है। आपका यह कथन सही नहीं है। आप सत्य को अब झुठला नहीं सकते।' पिता ने सोचा-इतनी विद्या इनमें कहां से आ गई। ये आज आत्मा की बात कर रहे हैं। ये जो कह रहे हैं, वास्तव में सही है किन्तु इस सचाई को स्वीकार करूंगा तो मुनि बनने की आज्ञा देनी होगी। राजपुरोहित राग के कारण सत्य को झुठलाने का प्रयत्न कर रहा था। जब-जब आदमी राग, द्वेष, भय आदि में उपयुक्त होता है तब-तब वह सत्य को झुठलाना चाहता है। वही व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर सकता है, जो केवल ज्ञान में उपयुक्त है, शुद्ध चेतना में उपयुक्त है। भृगुपुत्रों का निश्चय अटल था। वे सत्य का साक्षात् कर चुके थे। भृगु का प्रयत्न विफल हो गया। यह राग पर विराग की परम विजय थी। उसमें अनुगुंजित था यह स्वर-सच्चं लोयम्मि सारभूयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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