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जब सत्य को झुठलाया जाता है
१८७ अपने अतीत को साक्षात् देखते ही उनके मन में असीम श्रद्धाभाव जागा। उन्होंने मुनि को भावपूर्ण वन्दना कर प्रार्थना की- 'मुनिवर! हम भी आपके पास दीक्षित होंगे, मुनि बनेंगे। हम दीक्षा के लिए पूर्णतः प्रस्तुत हैं। आप हमारे गांव में पधारें। हम पिताजी की अनुज्ञा लेने जा रहे हैं। वे सीधे पिता के पास पहुंचे।' पिता से आग्रह किया-'पिताजी! हम मुनि बनना चाहते हैं। आप हमें आज्ञा दे।' राजपुरोहित भृगु यह सुनकर अवाक् रह गया। उसने कहा-'यह कैसी पागलपन की बात है!' दोनों भाई एक साथ बोल पड़े-'पिताजी! आपने हमें बहुत झूठ सिखाया है, सदा सत्य को झुठलाया है। अब आप सत्य को नहीं झुठला सकते!' झुठलाने का परिणाम
जो आदमी सत्य को झुठलाता है, वह घाटे में रहता है। सत्य को झुठलाने का परिणाम अच्छा नहीं होता। जब सत्य का पता चलता है तब वह झूठ उसे ही सालने लगता है।
पुत्र ने पिता को एक अंगूठी भेजी। उसने लिखा-'पिताजी! आपको मैं एक अंगूठी भेज रहा हूं, उसका मूल्य है पांच हजार रुपया। पिता ने अंगूठी पहन ली। अंगूठी बहुत चमकदार और सुन्दर थी। बाजार में मित्र मिले। नई अंगूठी को देखकर पूछा-'यह कहां से आई?' उसने कहा-'लड़के ने भेजी है। पांच हजार रुपये लगे हैं।' मित्र बोला-'क्या इसे बेचोगे? मैं पचास हजार दूंगा।' उसने पांच हजार की अंगूठी निकालकर दे दी और पचास हजार रुपये ले लिए। पुत्र को पत्र लिखा-तुमने शुभ मुहूर्त में अंगूठी भेजी। उसको मैंने पचास हजार रुपये में बेचकर पैंतालीस हजार रुपया कमा लिए। लौटती डाक से पत्र आया-पिताजी! संकोच और भयवश मैंने सचाई नहीं लिखी थी। वह अंगूठी एक लाख की थी।
___ यह सत्य को झुठलाने का परिणाम था। संवाद पिता के साथ
भृगुपुत्रों ने कहा-'पिताजी! आपने सत्य को झुठलाने का प्रयत्न कर अच्छा नहीं किया! हम मुनि अवश्य बनेंगे।'
पिता ने कहा- 'तुम मुनि क्यों बनना चाहते हो?' 'आत्मा को पाने के लिए
'अरे! तुम कहां भ्रम में फंस गये। यह झूठा मंत्र तुम्हारे कान में किसने फूंक दिया। क्या कोई साधु मिला था?'
'हां! जो मिलना था, मिल गया।' भृगुपुत्रों ने पूरी कथा सुना दी।
राजपुरोहित ने सोचा-अनर्थ हो गया। अब क्या करूं? उसने कहा-'कहां है आत्मा? आत्मा तो है ही नहीं।'
वह सत्य को फिर झुठलाने का प्रयत्न करने लगा। अब तक आस्तिक था और अब नास्तिक बन रहा था। राजपुरोहित बोला-'पुत्रो! तुम्हें यह झूठी बात किसने सिखला दी। तुमने अरणी की लकड़ी देखी है?'
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