SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जब सत्य को झुठलाया जाता है झुटलाकर रहूंगा । सत्य को झुठलाने के लिए उसने शहर से गांव में बसकर पहला कदम रखा। कुछ समय बीता। राजपुरोहित के दो पुत्र पैदा हुए । राजकुमार देवकुमार जैसे पुत्रों को प्राप्त कर पुरोहित प्रसन्न हो उठा। उसका - जीवन खुशियों से भर गया। समय बीतता गया। दोनों कुमार बड़े हुए। गुरुकुल में पढ़ने लगे। उनकी बुद्धि भी तीक्ष्ण और पैनी थी । राजपुरोहित के मन में यह प्रश्न सदा बना रहता - कहीं कोई साधु इन्हें मिल न जाए। यदि साधु मिल गये तो क्या होगा? उसने सोचा- मुझे इनके मन में ऐसा संस्कार भर देना चाहिए, जिससे इनके मन में साधुओं के प्रति आस्था और आकर्षण का भाव जागे ही नहीं? इस चिन्तन के साथ ही सत्य को झुठलाने का दूसरा प्रयत्न शुरू हो गया । राजपुरोहित ने पुत्रों के मन में यह मंत्र फूंकना शुरू कर दिया - 'बेटे ! जो साधु होते हैं ना, उनका सदा ध्यान रखना । कभी उनके पास मत जाना।' लड़कों ने पूछा- 'पिताजी! कैसे होते हैं ये साधु ?” 'वे एक हाथ में झोली रखते हैं, पात्र रखते हैं। उनके कपडे सफेद होते हैं वे इधर-उधर घूमते रहते हैं, पर तुम उनसे सदा बचते रहना ।' 'पिताजी! उनके पास क्यों नहीं जाना चाहिए?" १८५ 'बेटे! तुम नहीं जानते, वे बालकों को उठाकर ले जाते हैं। अपने पात्रों में छुरी-कैंची रखते हैं। बच्चों का अपहरण कर उन्हें सताते हैं, मार डालते हैं। किसी का कान काट देते हैं, किसी का नाक काट लेते हैं। तुम उनके पास भूल-चूक कर भी मत जाना।' राजपुरोहित इस प्रकार की बातें समय-समय पर अपने लड़कों के कान में भरता रहा। उनके मन में साधुओं के प्रति घृणा के भाव भर दिए। बच्चों के कच्चे दिमाग में ये संस्कार गहरे जम गए । एक दिन की बात है। दोनों किशोर जंगल में घूमने चले गए। संयोग ऐसा मिला, उसी जंगल में दो तीन मुनि विहार करते हुए आ पहुंचे। दोनों भाइयों ने देखा -अरे! ये तो वे साधु हैं! पिताजी ने इनसे ही दूर रहने की सलाह दी थी। ओह! ये तो सामने ही आ रहे हैं। कहां जाए? हम दो हैं, ये तीन हैं। हम छोटे हैं, ये बहुत बड़े हैं। दोनों भय से आक्रान्त हो उठे । शरीरशास्त्री बतलाते हैं-भय की स्थिति में एड्रीनल का अतिरिक्त स्राव होने लग जाता है । जब एड्रीनल का अतिरिक्त स्राव होता है तब आदमी की शक्ति दस-बीस गुना अधिक बढ़ जाती है। उस स्थिति में 'भागो या लड़ो' की भावना प्रबल बनती हैं। उन्होंने सोचा—इनसे लड़ नहीं सकते और भाग कर भी कहां तक जा सकते हैं। दोनों भाई एक गहरे पेड़ पर चढ़ गये, उस पर छिपकर बैठ गये । पेड़ पर चढ़कर उन्होंने राहत की सांस ली। वे मुनि के आगे जाने की प्रतीक्षा करने लगे। नियति का ऐसा योग मिला, मुनि भी उसी पेड़ के नीचे विश्राम करने ठहर गए, जिस पर वे दोनों भाई बैठे थे। भूमि का प्रमार्जन किया। मुनि ने एक स्थान पर पात्र रख दिए और ध्यान मुद्रा में खड़े हो गए। दोनों भाई भयभीत थे। मुनि की यह सामान्य चर्या होती है । वे प्रत्येक प्रवृत्ति के बाद निवृत्ति करते हैं । प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy