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________________ २६ दो भाइयों का मिलन महाभारत का एक प्रसिद्ध पद्य हैजानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः। मैं धर्म को जानता हूं पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है। मैं अधर्म को जानता हूं पर उससे निवृत्त नहीं हो पा रहा हूं। यह प्रश्न बहुत बार चर्चित हुआ है-धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त क्यों नहीं हो पाता हूं? अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्त क्यों नहीं हो पाता हूं? महाभारतकार के इस प्रश्न का सुन्दर समाधान मिलता है उत्तराध्ययन सूत्र में। उत्तराध्ययन सूत्र का तेरहवां अध्ययन है चित्तसंभूतीय। चित्र महान् निर्ग्रन्थ है और संभूति है चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त। मुनि और राजा के बीच बहुत लंबा संवाद चला और उस संवाद में यह प्रश्न उत्तरित हुआ है। ____ मुनि चित्र ने कहा-'राजन्! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ का अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुख में जाने पर पश्चात्ताप करता है। इसलिए तुम लौकिक सुखों में मत फंसो। इन्हें छोड़कर लोकोत्तर सुख की उपलब्धि के लिए प्रस्थान करो इह जीविए राय! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो। से सोयई मच्चुमुहोवणीए, धम्म अकाऊण परंसि लोए।।' चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त बोला—'मुनिप्रवर! आप जो कह रहे हैं, वह बिल्कुल यथार्थ है। मैं भी यह जानता हूं-ये काम-भोग आसक्तिजनक होते हैं किन्तु मुनीश्वर! वे भी हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए दुर्जेय हैं।' फल निदान का काम-भोगों की दुर्जयता का कारण बताते हुए राजा ने कहा- 'मुनिप्रवर! हस्तिनापुर में चक्रवर्ती सनत्कुमार को देख, काम-भोगों में आसक्त होकर मैंने अशुभ निदान-भोग का संकल्प कर डाला। उस पूर्वजन्म के निदान का मैंने प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त नहीं किया। उसी का फल है कि मैं धर्म को जानता हुआ भी काम-भोगों में मूर्च्छित हो रहा हूं। अहंपि जाणामि जहेह साहू! जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं । भोगा इमे संगकरा हवंति, जे दुज्जया अज्जो अम्हारिसेहिं।। हत्थिणपुरम्मि चित्ता दठूणं नरयइं महिड्ढियं। कामभोगेसु गिद्धेणं, नियाणमसुहं कडं। तस्य मे अपडिकंतस्स इमं एयारिसं फलं। जाणमाणो वि जं धम्म, कामभोगेसु मुच्छिओ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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