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________________ यज्ञ, तीर्थस्थल आदि का आध्यात्मिकीकरण १६५ यज्ञ क्यों? एक मत रहा-यज्ञ करने से आदमी स्वर्ग में चला जाता है। इस मत का समर्थन करने वाले व्यक्तियों का यज्ञ परम धर्म बन गया। स्थान-स्थान पर यज्ञ के बड़े-बड़े समारोह होने लगे। आयोजन में हजारों व्यक्ति सम्मिलित होते। यज्ञ की परम्परा विस्तार पाती चली गई। जब भगवान महावीर को कैवल्य उपलब्ध हुआ तब इंद्रभूति गौतम आदि ग्यारह दिग्गज विद्वान यज्ञ के निमित्त ही आ रहे थे। एक ही यज्ञ के लिए ग्यारह महापण्डित आए। प्रत्येक पण्डित के पांच सौ-पांच सौ शिष्य थे। उस समय हजारों लोग उस यज्ञ में उपस्थित थे। भगवान् महावीर का योग मिला, ग्यारह पंडितों की दिशा बदल गई। वे यज्ञ-कर्म से निवत्ति पा भगवान महावीर के शिष्य बन गए। श्रेष्ठ याज्ञिक कौन? आस्तिकता का एक लक्षण है, इष्टसिद्धि और अनिष्ट-निवारण की अभीप्सा। आदमी पाप से बचना चाहता है। वह उसके लिए विभिन्न अनुष्ठान करता है। मुनि हरिकेशबल ने याज्ञिक ब्राह्मणों से कहा-'अग्नि का समारम्भ करते हुए जल से शुद्धि की मांग कर रहे हो? तुम जिस शुद्धि की बाहर से मांग कर रहे हो, उसे कुशल लोग सुदृष्ट–सम्यग् दर्शन नहीं कहते। किं माहणा जोइ समारभंता, उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा? जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुदिट्ठ कुसला वयन्ति।। मुनि ने कहा- 'तुम अग्नि का समारम्भ कर प्राणों और भूतों की हिंसा करते हुए बार-बार पाप करते हो। जहां अग्नि का समारम्भ है, वहां हिंसा है। हिंसा के साथ पाप-कर्म का बन्धन जुड़ा हुआ है।' ब्राह्मण ने पूछा-'हे भिक्षो! हम कैसे प्रवृत्त हों? यज्ञ कैसे करें? जिससे पाप कर्मों का नाश कर सकें? आप हमें बताएं-कुशल पुरुषों ने सुदृष्ट श्रेष्ठ यज्ञ का विधान किस प्रकार किया है? कहं चरे? भिक्खु! वयं जयामो? पावाइ कम्माइ पणोल्लयामो? अक्खाहि णे संजय! जक्खपूइया! कहं सुजट्ठ कुसला वयन्ति? मुनि हरिकेशबल ने इस प्रश्न का बहुत मार्मिक उत्तर देते हुए कहा-'जो पांच संवरों से संसुवृत होता है, जो असंयम जीवन की इच्छा नहीं करता, जो काय का व्युत्सर्ग करता है, जो शुचि है और जो देह का त्याग करता है, वह महाजयी श्रेष्ट यज्ञ करता है।' सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं, इह जीवियं अणवकंखमाणो। वोसट्ठकाओ सुइचत्तदेहो, महाजयं जयई जन्नसिट्ठ।। यज्ञ और तीर्थ-स्थान : आध्यात्मिक दृष्टि ब्राह्मण सोमदेव की जिज्ञासा का स्रोत फूट पड़ा। उसने पूछा- भिक्षो! तुम्हारी ज्योति कौन सी है?' मुनि बोले-'तप है ज्योति।' 'तुम्हारा ज्योति-स्थान (अग्नि-स्थान) कौन-सा है?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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