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________________ १६४ महावीर का पुनर्जन्म ऐसा काम करना है, जिससे भविष्य में दुर्गति न हो, भविष्य समुज्ज्वल बना रहे। जिस व्यक्ति में यह चिंतन नहीं होता, उसे आस्तिक कैसे कहा जाए? व्यक्ति की आकांक्षा प्रत्येक व्यक्ति इष्ट को पाना चाहता है, अनिष्ट का निवारण चाहता है। इष्टसिद्धि और अनिष्ट-निवारण-ये दोनों तत्त्व प्रत्येक व्यक्ति को काम्य रहे हैं। इष्टसिद्धि और अनिष्ट-निवारण के लिए व्यक्ति धर्म भी करता है, कर्म भी करता है। इष्ट और अनिष्ट-दोनों अनेक प्रकार के होते हैं। जो प्रज्ञावान् हैं, उनकी दृष्टि में इष्ट का आध्यात्मिक रूप ही दोषरहित है, सम्यक् है। इष्टसिद्धिरनिष्टस्य, निवारणमभीप्सितम्। तदर्थ कर्म धर्मोऽपि, तदर्थ विद्यते नृणाम् ।। इष्टं नैकविधं तेषां, अनिष्टं चापि नैकथा। तेषामाध्यात्मिकं रूपं, निर्दोषं सम्मतं बुधैः ।। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है-जीवन में अनिष्ट न आए, विघ्न न आए। व्यक्ति अतीत से बंधा हुआ है। उसने अतीत में न जाने क्या-क्या किया है। अतीत का प्रतिक्रमण किए बिना यह संभव नहीं है कि विघ्न न आए, बाधा न आए। यदि वर्तमान जीवन में संयम नहीं है, पवित्रता नहीं है तो भी विघ्न की संभावना को समाप्त नहीं किया जा सकता। अतीत का प्रतिक्रमण और वर्तमान की पवित्रता-ये दोनों बातें होती हैं तो सुखद भविष्य की संभावना जन्म लेती है। धर्म की दो धाराएं धर्म की दो धाराएं रही हैं—प्रवृत्तिवादी धर्म और निवृत्तिवादी धर्म। प्रवर्तक धर्म का उद्देश्य था-स्वर्ग की प्राप्ति। मीमांसक दर्शन प्रवर्तक धर्म का अग्रणी दर्शन है। मीमांसक धर्म का मुख्य उद्देश्य स्वर्ग-प्राप्ति रहा। आत्मा या मोक्ष की अवधारणा का विकास बाद में हुआ है। मीमांसक दर्शन ने मोक्ष को स्वीकार किया, उसे जीवन का परम लक्ष्म माना, किंतु उसका मुख्य उद्देश्य स्वर्ग की प्राप्ति का रहा। प्रश्न था-स्वर्ग की प्राप्ति कैसे हो? नरक को कैसे टालें? कहा गया-स्वर्ग के लिए यज्ञ करना चाहिए। प्रवर्तक धर्म में कर्म की प्रधानता होती है। निवर्तक धर्म में ज्ञान की प्रधानता होती है। मीमांसा दर्शन के प्रमुख आचार्य प्रभाकर कर्मवादी हैं। उनकी सृष्टि में कर्म प्रधान हैं, ज्ञान गौण। वे ज्ञान को स्वतंत्र नहीं मानते। आचार्य शंकर ज्ञानवादी हैं। उनकी दृष्टि में ज्ञान का मूल्य अधिक है, कर्म का मूल्य नगण्य। कर्म ज्ञान का ही अंग है। कुमारिल भट्ट ज्ञान और कर्म-दोनों को स्वीकार करते हैं। मीमांसा के इन तीन आचार्यों की तीन प्रकार की चिंतनधाराएं रही हैं। यज्ञ आदि का सबसे ज्यादा समर्थन आचार्य प्रभाकर ने किया। मीमांसा पक्ष में यज्ञ का समथन और विधान है, इसलिए मीमांसा का पूर्वपक्ष कर्मकाण्ड कहलाता है। उत्तरपक्ष में यज्ञ आदि का समर्थन नहीं किया गया। वह ज्ञानकाण्ड कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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