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________________ २५ यज्ञ, तीर्थस्थल आदि का आध्यात्मिकीकरण एक पुरानी कहानी है। राजा ने शुकराज से पूछा-'शुकराज! तुम इतनी देर से क्यों आए?' शुकराज ने कहा-'महाराज! मैं आ रहा था किंतु मेरे सामने एक विवाद आ गया। उसका निपटारा किए बिना मैं कैसे आ सकता था? मैं अपनी जाति का राजा हूं, शासक हूं। अपनी जाति के विवादों का निपटारा मुझे करना होता है।' राजा के मानस में जिज्ञासा उभर आई। उसने पूछा-'तुम्हारे सामने क्या विवाद था?' शुकराज बोला-'जब मैं आपके पास आ रहा था तब दो तोते आपस में लड़ते-लड़ते आए। मैंने उसने पूछा-तुम क्यों लड़ रहे हो? उन्होंने कहा-हम दोनों में विवाद हो गया है। मैंने पूछा-विवाद का कारण क्या है? उन्होंने कहा-इस दुनिया में पुरुष ज्यादा हैं या स्त्रियां ज्यादा हैं? यह प्रश्न समाहित नहीं हो रहा है। यही विवाद का कारण है।' प्रत्येक आदमी अपनी बात के लिए लड़ता है। वह बिना मतलब बहुत लड़ता है। एक बात को लेकर विवाद खड़ा कर देता है, प्रश्न प्रस्तुत कर देता है। प्रश्न सहेतुक हो या अहेतुक, अनेक बार विवाद का रूप ले लेता है। यह प्रश्न भी अनेक बार उभरता रहा है-ज्यादा कौन-पुरुष या स्त्री? प्रश्न आस्तिक और नास्तिक का ऐसा ही एक प्रश्न मेरे मानस में उभरा है। इस दुनिया में आस्तिक ज्यादा हैं या नास्तिक? यह प्रश्न भी विवादास्पद बन सकता है। मुझे लगता है-इस दुनिया में नास्तिकों की संख्या बहुत ज्यादा है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया-जो केवल वर्तमान की बात सोचता है, वर्तमान जीवन के विकास की बात सोचता है, वर्तमान जीवन में अधिकतम सुख-सुविधा और संपदा पाने की बात सोचता है, वह सही अर्थ में आस्तिक नहीं हो सकता। आस्तिक वह होता है, जो अतीत की बात सोचता है, वर्तमान और भविष्य की बात सोचता है। जिसका दृष्टिकोण तीन काल से बंधा हुआ है, वह आस्तिक है। जो केवल वर्तमान की बात सोचता है, वह नास्तिक है, चाहे उसकी मान्यता कुछ भी हो। एक आदमी आत्मा को मानता है, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को मानता है किंतु केवल वर्तमान की बात सोचता है। वह सोचता है—मैं इस जीवन में सुखी रहूं। भयभीत न रहूं। मेरे पास पर्याप्त धन-संपदा हो। सुख-सुविधा के साधन हों। वह रात-दिन इसी चिंतन में लगा रहता है। ऐसा व्यक्ति चाहे आत्मवादी कहलाए, धार्मिक कहलाए, पर सही अर्थ में वह नास्तिक होता है। आस्तिक व्यक्ति का दृष्टिकोण होता है-मुझे अतीत के संस्कारों का परिष्कार करना है, निर्जरण करना है, वर्तमान में धर्म का जीवन जीना है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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