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कर्मणा जाति
उन्हें पूरा करने वाले लोग भी उतने ही चाहिए। यदि एक आदमी होता तो कुछ होता ही नहीं । आदमी कितना ही शक्तिशाली हो पर वह होगा एक ही दिशा में । अन्य सारी शक्तियों की पूर्ति के लिए उसे समाज से जुड़ना पड़ेगा। इसीलिए सब सापेक्ष हैं, कोई निरपेक्ष नहीं है । यदि कोई व्यक्ति निरपेक्षता की बात सोचता है तो इससे बड़ी कोई भूल नहीं हो सकती। आचार्य कालूगणी कहा करते थे— आचार्य सब कुछ होता है पर वह भी इतना सापेक्ष है कि उसे कहीं भी जाना हो तो एक साधु का सहयोग चाहिए। जहां समुदाय है, समाज और राज्य है वहां निरपेक्षता की बात नहीं सोची जा सकती।
समाज का सूत्र हैं सापेक्षता । अनेक लोगों की शक्ति लगती है तब एक समाज बनता है, समाज की आवश्यकताएं पूरी होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुरूप कर्म करता है। जिसमें जिस प्रकार की शक्ति होती है, उसमें उसी प्रकार का कर्म होता है। यह बहुत बड़ा सूत्र है - जिस व्यक्ति में जिस प्रकार की शक्ति है, उसे उसी कर्म में लगाओ। यह समाज की सफलता का सूत्र है-शक्ति के अनुरूप कमे का नियोजन होना चाहिए। यह था कर्म का सिद्धांत - जिस प्रकार की शक्ति, उसी प्रकार का कर्म । प्रस्तुत प्रसंग में कर्म का अर्थ ज्ञानावरण और दर्शनावरण से नहीं है। कर्म का तात्पर्य है कार्य से। जिस व्यक्ति में जो काम करने की शक्ति है, वह उसी काम में अपनी शक्ति का नियोजन करे । इस कार्य विभाजन के आधार पर ही एक व्यक्ति ब्राह्मण बनता है, एक व्यक्ति क्षत्रिय बनता है, एक व्यक्ति वैश्य या शूद्र बनता है । जिसमें विद्या की शक्ति है, वह ब्राह्मण है। जिसमें पौरुष की शक्ति है, वह क्षत्रिय बनेगा । जिसमें व्यावसायिक बुद्धि है, वह व्यापारी बनेगा। जिसमें सेवा करने की शक्ति है, वह सेवक बनेगा ।
जन्म से नहीं, कर्म से
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वैदिक विद्वानों द्वारा कर्म के आधार पर समाज को चार भागों में बांटा गया । ऋषभ ने समाज को तीन भागों में विभक्त किया। प्लेटों ने जिन तीन विभागों की कल्पना की है, वह जैन आचार्यों की कल्पना के काफी निकट है। असि-मसि-कृषि के साथ बुद्धि, साहस और वासना की तुलना की जा सकती यह एक लचीला सिद्धान्त था, जिसका उद्देश्य था - समाज की अपेक्षाएं पूरी हों और परिवर्तन भी न हो । जब जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा तब जन्मना जाति की बात गौण हो गई, चारों ओर कर्मणा जाति का स्वर उभरा। गीता में भी कहा गया- चातुवर्ण्यं मया सृष्टं, गुणकर्मविभागशः । व्यक्ति अपने गुण या कर्म से ब्राह्मण बनता है । ब्राह्मण जन्मना नहीं, कर्मणा होता है । केवल ऊँ जपने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता । ब्रह्मविद्या को जानने वाला ब्राह्मण होता है। जैन और बौद्ध धर्म ने कर्मणा जाति का एक तीव्र आंदोलन चलाया और उसका समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ । भागवत--पुराण और महाभारत में भी कहा गया- एक व्यक्ति एक जन्म में ब्राह्मण भी हो सकता है, वैश्य और क्षत्रिय भी हो सकता है, चाण्डाल भी हो सकता है ।.
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