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महावीर का पुनर्जन्म
समाज नहीं होता तो अस्तेय और ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं बनता। इन व्रतों की उपयोगिता समाज के सन्दर्भ में है। हो सकता है-पहले अहिंसा ही एक व्रत रहा हो। चार या पांच महाव्रत इसका विस्तार है। आचार्य हरिभद्र ने व्रतों की बहुत सूक्ष्म मीमांसा की है। उन्होंने लिखा
अहिंसा पयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत्। मूल व्रत एक है अहिंसा। शेष सारे व्रत उसकी सुरक्षा के लिए हैं। व्रतों का सारा विस्तार सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ में होता है।
___ आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा-आश्रव भव-भ्रमण का हेतु है और संवर मोक्ष का कारण है। समग्र अर्हत् दर्शन इन दो तत्त्वों का विस्तार है
आश्रवो भवहेतुः स्याद्, संवरो मोक्षकारणम् । __इतीयमाहतीदृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ।। जितनी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, उतना ही दर्शन का विस्तार होता चला जाता है। भगवान महावीर ने आत्मतुला का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा-सब जीवों को अपने समान समझो। जातिवाद की अतात्त्विकता इसी सिद्धांत का विस्तार है। उस समय सामाजिक परिस्थितियों के कारण यह स्वर प्रबल बना। महावीर के समय में समाज की क्या परिस्थितियां थीं, क्या सामाजिक मान्यताएं थीं, यदि इनका विश्लेषण किया जाए तो जातिवाद के समर्थन या विरोध की परिस्थिति को समझा जा सकता है। इस परिस्थिति के संदर्भ में ही जातिवाद और अहंकार की पृष्ठभूमि का विश्लेषण यथार्थ रूप में प्रस्तुत हो पाएगा।
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