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________________ जातिवाद तात्त्विक नहीं है सार्वभौम उद्घोष जातिवाद की इस समस्या को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है १५७ यथा यथाऽिभवर्धते ऽभिमन्यता निरंकुशा | तथा तथा प्रवर्धते घृणा च जातिसंभवा ।। यथा यथा प्रवर्धते समत्वभावसंस्तवः । तथा तथा विलीयते ऽभिमानभावना स्वतः ।। जैसे जैसे निरंकुश अभिमन्यता बढ़ती है, वैसे वैसे जाति से पैदा होने वाली घृणा बढ़ती चली जाती है । जैसे-जैसे समत्व भाव से परिचय बढ़ता है, वैसे वैसे अभिमान भावना स्वतः विलीन हो जाती है, अपनी मौत मर जाती है। यह जातिवाद का भूत, अहंकार का आवेश मनुष्य को सताता रहता है और इसी आधार पर विषमता को बढ़ावा मिलता है। जहां विषमता होती है, वहां आदमी आदमी को समान मानने की बात गौण हो जाती है। एक आदमी दूसरे आदमी को घृणित माने, इससे बढ़कर मानवता का कोई अपमान नहीं हो सकता। इस बात को लेकर जैन और बौद्ध आचार्यों ने जातिवाद के खण्डन में अपनी पूरी शक्ति लगाई। डेढ़ हजार वर्ष का दार्शनिक साहित्य इसका स्पष्ट प्रमाण है। दूसरी ओर जातिवाद के समर्थकों ने उसके मंडन में अपनी शक्ति नियोजित की। एक पक्ष था- जातिवाद वास्तविक है, काल्पनिक नहीं । दूसरा पक्ष था - जातिवाद कल्पना है, मान्यता है, वास्तविक नहीं। महावीर के सिद्धान्तों से उपजा यह घोष मुखर हो उठा - 'एक्का मणुस्स जाई' - मनुष्य जाति एक है। जाति का कोई भेद नहीं है, जाति में कोई अलगाव नहीं है। आज यह उद्घोष सार्वभौम और सामुदायिक बन रहा है । हमें यह मानना चाहिए- जातिवाद के पीछे जो एक अहंकार था, वह बदल रहा है, नया रूप ले रहा है। जब तक समत्व की प्रतिष्ठा नहीं होगी, अहंकार को नया रूप मिलता रहेगा। महावीर के जो सिद्धान्त विकसित हुए हैं, उनके पीछे सामाजिक पृष्ठभूमि रही है । जिस समय जो सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियां होती हैं, सिद्धांतों का निर्माण उन परिस्थितियों के संदर्भ में होता है । विस्तार : परिस्थिति सापेक्ष हिंसा नहीं करनी चाहिए, यह एक सिद्धान्त है । अहिंसा की व्याख्या का विस्तार तत्कालीन परिस्थिति के आधार पर हुआ। उस समय दासप्रथा प्रचलित थी । अहिंसा की व्याख्या में एक बात कही गई— 'किसी को दास मत बनाओ ।' यह अहिंसा की कोई मूल परिभाषा नहीं है । यह परिस्थिति से उपजा हुआ सिद्धांत था । अहिंसा का मूल हार्द है - राग-द्वेष मत करो, किसी को मत सताओ। उसका जो विस्तार हुआ है, वह सामाजिक स्थितियों के सन्दर्भ में हुआ है। आचार्यश्री ने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया। नया मोड़ चलाया। उसके व्रतों का निर्धारण वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर हुआ । आचार्य भिक्षु ने धर्म की जो व्याख्या की, उसका आधार भी समाज की तत्कालीन परिस्थितियां थी । अगर समाज नहीं होता, व्यक्ति अकेला होता तो सत्य का व्रत नहीं बनता। अगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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