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________________ महावीर का पुनर्जन्म १५६ सेठ ने घोषणा की - 'पंडितजी ! आपने सुन्दर ढंग से पूजा विधि संपादित की है इसलिए मैं आपको सोने की चौकी दक्षिणा में प्रदान करता हूं।' पंडितजी यह सुन विस्मित रह गए। तालियां बज उठीं। सेठ की जय जयकार होने लगी । अहंकार से भरे सेठ ने आगे कहा- 'पंडितजी ! आज तक कोई इतना बड़ा दानी मिला?” पंडितजी त्यागी थे। सेठ के कथन से उनका मानस आहत हुआ । उन्होंने सोचा- मैं सोने की चौकी ले सकता हूं किन्तु उसके साथ यह अहंकार का भार नहीं उठा सकता। पंडितजी ने जेब में हाथ डाला, एक रुपया निकाला। उस रुपये को चौकी पर रखते हुए पंडिजी बोले - 'सेठजी ! इस रुपये के साथ मैं आपकी चौकी आपको लौटा रहा हूं।' पंडितजी ने आगे कहा- 'सेठजी! क्या आपको आज तक इतना बड़ा त्यागी मिला?" सेठ यह सुनकर स्तब्ध रह गया । उसका सारा खून पानी बन गया और अहंकार का उत्ताप त्याग की शीतलता से ठण्डा हो गया । समता की चेतना प्रबल बने अहंकार की पराजय हमेशा त्याग के द्वारा होती है। धन के द्वारा कभी अहंकार की पराजय नहीं होती। सत्ता और शक्ति के द्वारा कभी अहंकार को हराया नहीं जा सकता। जब समत्व, त्याग और तपस्या का विकास होता है, अहंकार विलीन होता चला जाता है। जातिवाद के उस युग में भगवान महावीर और बुद्ध ने समता की चेतना के विकास पर बल दिया । समता का विकास प्रबल बना, जातिवाद की पकड़ कमजोर होने लगी। जातिवाद का जो एकछत्र साम्राज्य था, उसकी जड़ें हिलने लग गई। अगर महावीर और बुद्ध ने इस दिशा में प्रयत्न न किया होता तो आज न जाने हिन्दुस्तान की क्या दशा होती ? आज भी हिन्दुस्तान की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अनेक तीव्र प्रयत्नों के बावजूद हिन्दुस्तान को जातिवाद के बुरे परिणाम भुगतने पड़े। हम आज भी उसके परिणाम भुगत रहे हैं । जातिवाद की काली छाया आज भी विद्यमान है । मनुष्य का अहंकार आज भी समस्या का कारण बना हुआ है। अहंकार के द्वारा उसे मिटाया नहीं जा सकता। आप जीते, मैं हारा राजा दशार्णभद्र ने महावीर की वन्दना के लिए प्रस्थान किया। उसके साथ विशाल सेना थी, वैभव था । इन्द्र को यह अहंकार - प्रदर्शन अनुचित लगा । इन्द्र ने दशार्णभद्र को पराजित करने के लिए अपार वैभव और शक्ति का प्रदर्शन किया । दशार्णभद्र के अहंकार को चोट पहुंची। उसने सोचा- वैभव और शक्ति से मैं इन्द्र को पराजित नहीं कर सकता। उसने तत्काल एक निश्चय किया और महावीर को वन्दन कर बोला- 'भगवन! आप मुझे दीक्षित करने की कृपा करें ।' भगवान ने दशार्णभद्र को दीक्षित कर लिया। वह सर्वत्यागी मुनि बन गया । इन्द्र का अहंकार पराजित हो गया। वह वैभव और शक्ति से समृद्ध था किन्तु त्याग के क्षेत्र में वह दशार्णभद्र की बराबरी नहीं कर सका। वह राजर्षि के चरणों में झुक गया। उसने कहा- 'राजर्षि! आप जीते, मैं हारा ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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