SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ महावीर का पुनर्जन्म छिपी हुई वृत्तियां काम करती हैं। यह जातिवाद का प्रश्न भी बुद्धि का नहीं है, मनुष्य की मान्यता का है और इसके पीछे भी एक वृत्ति काम कर रही है। चाहे सामाजिक मान्यता हो, संप्रदायगत मान्यता हो, जातिगत मान्यता हो, उसकी पृष्ठभूमि में मनुष्य की मनोवृत्ति विद्यमान रहती है।' । जातिवाद का आधार मनोविज्ञान ने वृत्तियों का एक जाल बिछाया है। उसके कई वर्गीकरण किए हैं, किंतु यदि हम जैन मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो मौलिक मनोवृत्ति एक है-राग। शेष वृत्तियां उसका विस्तार है। सब वृत्तियों में मूल है-राग, प्रियता का संवेदन। राग है तो दूसरी वृत्ति बनेगी-द्वेष। द्वेष मूल मनोवृति नहीं है। राग है तो द्वेष का होना भी अनिवार्य है। राग है, इसका मतलब लोभ और प्रियता है। प्रियता है, राग है तो अप्रियता और द्वेष का होना जरूरी है, घृणा और अहंकार का होना भी जरूरी है। अहंकार दिखाई देता है, ममकार दिखाई देता है, राग और द्वेष छिपे रहते हैं। व्यक्ति कहता है-मैं धनवान हूं, मैं पढ़ा लिखा हूं, मैं सत्ताधीश हूं-यह अहंकार है। जितनी उपाधियां लगती हैं. जितने विशेषण लगते हैं. वे सारे व्यक्ति के अहंकार को प्रकट करने वाले हैं। जो जातिवाद की मान्यता बनी है, उसका एक आधार है-अहंकार । व्यक्ति में अहंकार होता है और वह अपने अहंकार का प्रदर्शन करना चाहता है। अंहकार की अभिव्यक्ति का एक रूप बनता है-जातिवाद। अहंकार : अनेक रूप प्रश्न हो सकता है-हिन्दुस्तान में ही जातिवाद को इतना बढ़ावा क्यों मिला? बाहर उसका प्रसार क्यों नहीं हुआ? हिन्दुओं में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। दूसरी अनेक जातियों में भाईचारा बना हुआ है। क्या वे जातियां नहीं हैं? क्या दूसरे देशों में जातियां नहीं हैं? यह सोचना भी शायद सार्थक नहीं है। अंहकार को प्रकट करने का रास्ता एक ही नहीं होता। उसकी अभिव्यक्ति के अनेक रास्ते हैं। अंहकार को जो माध्यम मिलता है, वह उसे अपना लेता है। अभिव्यक्ति के आधार पर आचार्यों ने अहंकार को आठ भागों में विभक्त किया १. जाति का अहंकार। ५. रूप का अहंकार। २. कुल का अहंकार। ६. तप का अहंकार। ३. बल का अहंकार। ७. श्रुत का अहंकार। ४. लाभ का अहंकार। ८. ऐश्वर्य का अहंकार। अंहकार के ये आठ ही नहीं, अनेक विभाग हो सकते हैं। वस्तुतः अहंकार एक ही है, उसकी प्रणालियां अलग-अलग हो गई। एक ही गंगा से नहरें निकलीं, एक ही यमुना से नहरें निकलीं, कोई भाखड़ा नहर बन गई, कोई गंगनहर बन गई। नाम अलग-अलग हो गए। उनमें सारा पानी गंगोत्री और यमुनोत्री से आ रहा है। वह नहरों और नालियों के माध्यम से अनेक रूपों में प्रवाहित होता है। इस प्रकार मूल में एक ही अहंकार काम कर रहा है और वह अहंकार ही अनेक रूपों में बंट जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy