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पूजा करें बहुश्रुत की
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'कैसे नहीं चुका सकता?'
'तुम्हे पता नहीं है, बेचारे कितने किसानों ने पसीने और श्रम को बहाकर कपास को उगाया, कपास को तोड़ा। वह कपास मेरे घर आया। मेरी पत्नी ने उसे काता, मैंने उसे रंगा, बुना। और भी न जाने इसमें कितने लोगों का श्रम पसीना बनकर बहा है। क्या तुम दो रुपये से उसका मूल्य चुका सकते हो? उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम चले जाओ। तुम्हारा पिता तुमसे कहेगा-तुम दो रुपये का हिसाब दो। तुम कोई चीज नहीं ले जा रहे हो, क्या कहोगे? क्या हिसाब दोगे? तुम्हें भर्त्सना सहनी पड़ेगी इसलिए तुम शान्त भाव से चले जाओ।'
युवक पैरों में गिर पड़ा। उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा-आप क्षमा करें, मैंने बड़ी नादानी की है।
संत ने युवक को गले लगाते हुए कहा-'जाओ! भविष्य में ऐसी भूल मत करना। तुमने साड़ी का लीरा-लीरा कर दिया। मैं दूसरी साड़ी बना लूंगा
और वह बन जाएगी पर तुम अपने जीवन का ध्यान रखना, अगर जीवन का लीरा-लीरा कर दिया तो पुनः जीवन नहीं बनाया जा सकेगा।' अहंकार का स्थान
बहुश्रुत में इतना धैर्य होता है कि वह अपने धैर्य के द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवन को बदल देता है, उसका कायाकल्प कर देता है। बहुश्रुत जीवन के रहस्यों को पढ़ लेता है, जीवन की गहराइयों में उतर जाता है, अंधियारी गलियों
और पगडण्डियों में पहुंच कर जीवन का अर्थ समझता है। ऐसा व्यक्ति बहुश्रुत होता है और वह पूजा का अधिकार पाता है। कोई आदमी किसी की पूजा सहज ही नहीं करता। बहुत कठिन है मस्तक को नमाना, गर्दन को झुकाना। व्यक्ति की गर्दन अकड़न में रहती है। यह स्थान है अहंकार का। हमारे शरीर में क्रोध का भी एक स्थान है और अहंकार का भी एक स्थान है। हमारे शरीर में चारों कषायों के अपने-अपने स्थान बने हुए हैं। अहंकार का स्थान है-गर्दन। अनेक लोग कहते है-यह व्यक्ति ऊंट की भांति पकड़कर चल रहा है। जब अकड़न होती है, सिर झुकता नहीं है। यह अहंकार का विलयन और विनम्रता का उद्भव उसी व्यक्ति के सामने होता है, जिस व्यक्ति ने जीवन के रहस्यों को समझा है। कहा गया-जो बहुश्रुत होता है, उसमें श्रुत और शील-दोनों का योग होता है। उसमें गंभीरता और ऊंचाई-दोनों होती है। जिसमें गहराई नहीं होती, उसमें ऊंचाई भी नहीं हो सकती। बहुश्रुत थे मघवागणी
- बहुश्रुत के रूप में पूज्य मघवागणी का उदाहरण दिया जाता है। मघवागणी के व्यक्तित्व में बहुश्रुत की अनेक विशेषताएं उपलब्ध होती हैं। वे बहुत कोमल और उदार माने जाते थे। जब वे किसी को उलाहना देते, किसी की गलती के परिष्कार के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाही करते तब उनके हृदय में करुणा का स्रोत फूट पड़ता। वे गलती करने वाले व्यक्ति से कहते-'तुमने गलती की, इसीलिए मुझे कहना पड़ा। तुम्हें कहने में मुझे दुःख हो रहा है।' एक ओर
उलाहना और अनुशासन, दूसरी ओर प्रत्येक व्यक्ति के साथ सघन संवेदना की Jain Education International For Private & Personal Use Only
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