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महावीर का पुनर्जन्म
एक चिपैंजी कैसा व्यवहार करता है? एक खरगोश और एक चूहा कैसा व्यवहार करता है? वे ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? उसके पीछे प्रेरणाएं क्या हैं? इनके व्यवहार को कब बदला जा सकता है? क्या वे मुक्त मस्तिष्क से व्यवहार कर रहे हैं या उनका अपने व्यवहार नियंत्रण है? उनका किस अवस्था में कौनसा व्यवहार होता है और किस अवस्था में कौन-सा व्यवहार बदल जाता है? आदि-आदि रहस्यों को जानने के लिए आज विद्या की बहुत शाखाएं फैल चुकी हैं।
ऐसा क्यों?
प्रश्न हो सकता - निशीथ और व्यवहार सूत्र बहुत छोटा है। क्या इतना पढ़ लेने मात्र से व्यक्ति बहुश्रुत बन जाता है? एक ओर इतना प्रतिष्ठित शब्द बहुश्रुत, दूसरी ओर इतने छोटे से आगम का अध्ययन । निशीथ, कल्प, व्यवहार की अपेक्षा आज मनोविज्ञान की एक पुस्तक बहुत बड़ी है। इनकी अपेक्षा आधुनिक अर्थशास्त्र की पुस्तक बहुत विशाल है । समन्तभद्र का ग्रंथ अष्टसहस्री और उसकी व्याख्या बहुत बड़ी है। उन्हें पढ़ने वाले को बहुश्रुत नहीं कहा गया और छोटे-छोटे ग्रन्थ, जो सौ पृष्ठों में समा जाए, उन्हें पढ़ने वाला बहुश्रुत माना गया। बात अटपटी-सी लग सकती है। क्या पुराने लोगों का ज्ञान सीमित था ? इतनी स्वल्प ज्ञान राशि धारण करने वाले को बहुश्रुत कैसे कह दिया गया? उसे पूजा पाने का अधिकारी क्यों माना गया? आज बहुत विद्वान हैं, अनेक ग्रन्थों एवं शास्त्रों के मर्मज्ञ है । उन्हें न तो बहुश्रुत कहा गया और न ही पूजा का अधिकारी माना गया। ऐसा क्यों?
जरूरत है सूरज उगाने की
हम केवल सूत्र की बात पर अटक जाते हैं । यह बहुत बड़ी समस्या है। हमने सूत्र को पकड़ा किन्तु उसके अर्थ को नहीं पकड़ा। सूत्र छोटा होता है किन्तु उसका अर्थ बहुत विशाल हो सकता है। कोरे सूत्र को पकड़ने का अर्थ है-शब्द को पकड़ना । निशीथ सूत्र को पढ़ने वाला यदि निशीथ भाष्य और चूर्णि को नहीं पढ़ता है तो उसके लिए अन्धकार सचमुच अन्धकार ही रह जाता है । कल्प और व्यवहार को पढ़ना है तो उसका टब्बा कहां तक सहयोग करेगा? उससे अन्धकार में एक छोटा सा दीप तो जल जाएगा किन्तु यदि घोर अन्धकार व्याप्त है तो कोर दीप से काम कैसे चलेगा? उसे मिटाने के लिए जरूरत है एक सूरज को उगाने की और उसका उदय अर्थाधिकार के बिना कभी संभव नहीं बनता ।
सूत्रों में बहुत गहरा और विशुद्ध ज्ञान निबद्ध रहा है । उसे समग्रता से भाष्यकार भी नहीं बांध सके, चूर्णिकार भी नहीं बांध सके। अगर आज निशीथ, व्यवहार और कल्प-- इनकी पूरी अर्थ - कल्पना प्राप्त होती तो शायद मनोविज्ञान को खोजना नहीं होता, जैन दर्शन को व्यवहार- मनोविज्ञान को खोजना नहीं होता, नीतिशास्त्र और आचारशास्त्र में डुबकियां लगाने की जरूरत नहीं होती । जैन धर्म के पास ज्ञान का विशाल समुद्र होता और वह मनोविज्ञान को बहुत सारी नई बातें दे पाता किन्तु बहुश्रुत के साथ जो ज्ञान राशि जुड़ी हुई थी, वह विस्मृत हो गई, केवल पूजा की बात ही रह गई । प्रश्न हुआ - बहुश्रुत की पूजा क्यों करें? अन्धकार में प्रकाश को खोजा है, जिस व्यक्ति ने
कहा गया - जिस व्यक्ति ने
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