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जैन शिक्षा प्रणाली
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क्या खाएं और क्या न खाएं-इसका पूरा विधान आयुर्वेद में उपलब्ध होता है। आयुर्वेद में कहा गया-अमुक समय में घी खाना चाहिए, अमुक समय में घी नहीं खाना चाहिए। घी कितना खाना चाहिए. इसका भी आयर्वेद में स्पष्ट निर्देश है। अमुक ऋतु में दही नहीं खाना चाहिए, अमुक ऋतु में दूध नहीं पीना चाहिए, इसका विवेक भी अपेक्षित होता है। मारवाड़ी का प्रसिद्ध श्लोक है
चेते गुड़ वैशाखे तेल, जेठे पंथ असाढे बेल, सावण दूध रु भादवा मही, कार करेला कार्तिक दही। अगहन जीरो पोष धणा, माघे मिसरी फागण चणा,
जै एवारे देत बचाय, तिण घर रोग कदै नहीं आय।।
जैन शिक्षा पद्धति केवल बौद्धिक विकास पर ही केन्द्रित नहीं है। वह जीवन के समग्र विकास एवं स्वास्थ्य से जुड़ी हुई है। आहार-विवेक स्वास्थ्य का महत्त्वपूर्ण घटक है। आज आहार-विज्ञान बहुत विकसित हो गया है। उसमें अनेक सचाइयां प्रतिपादित हुई हैं। विज्ञान कहता है-जैसा आहार करते हैं वैसे रसायन बनते हैं। जब हमारे शरीर के रसायन ठीक काम नहीं करते हैं, ग्रन्थियों के स्राव सन्तुलित नहीं होते हैं तब बौद्धिक, मानसिक एवं भावात्मक विकास की क्षमता मन्द हो जाती है। बाह्यतप : कायसिद्धि
कायसिद्धि के लिए आसन और अशन-इन दोनों को जानना बहुत जरूरी है। आहार-विवेक और आसन-प्राणायाम से प्रभावित है कायसिद्धि। कायसिद्धि व्यक्तित्व के विकास का मूल आधार है। इस संदर्भ में निर्जरा के प्रथम पांच भेदों का विश्लेषण करें तो लगेगा-निर्जरा के प्रथम पांच भेद शिक्षा के अनिवार्य अंग हैं। अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी और रस-परित्याग-ये चारों अशन से जुड़े हुए हैं। कायक्लेश का संबंध आसन से है। आगमकारों ने जिस गहराई में जाकर तत्त्वों का प्रतिपादन किया था, उस गहराई तक पहुंचना आसान नहीं है। जब तक अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी और रस-परित्याग का मूल्य नहीं समझा जाएगा, इन बाह्यतपों का मूल्यांकन नहीं किया जाएगा तब तक विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग की बात समझ में नहीं आ पाएगी। आभ्यन्तर तप के विकास के लिए बाह्य तप को जानना और जीना आवश्यक है। एक व्यक्ति स्वाध्याय का विकास करना चाहता है, ध्यान का विकास करना चाहता है किन्तु उसकी यह चाह बाह्य तप के विकास के बिना अधूरी रहेगी।
आभ्यन्तर तप के विकास में बाह्य तप की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस संदर्भ में जैन शिक्षा पद्धति के स्वरूप का विश्लेषण करें तो निष्कर्ष होगा-जैन शिक्षा प्रणाली सर्वांगीण प्रणाली है। इसमें शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास के साथ-साथ भावात्मक विकास पर बहुत अधिक बल दिया गया है। इनका विकास प्रशिक्षण के बिना संभव नहीं है। प्रशिक्षण के लिए स्वाध्याय योग आवश्यक है। जैन आगम के प्रसिद्ध शब्द हैं–सिक्खियं, ठिअं, चिअं, परिचिअं। पहले सीखें, जानें, फिर उसकी धारणा करें, उसे स्थिर करें, विस्मृत न होने दें। उससे परिचित हो जाएं, सीखी हुई बात को आत्मसात कर लें। प्रशिक्षण का यह क्रम शिक्षा को समग्रता से जानने एवं जीने का सशक्त उपक्रम है।
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