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________________ १४२ महावीर का पुनर्जन्म शिक्षाशील की आठ विशिष्टताएं होती हैं१. हास्य नहीं करना ५. दुःशील न होना २. इन्द्रिय और मन का दमन करना ६. रसों में गृद्ध न होना ३. मर्म का प्रकाशन न करना ७. क्रोध न करना ४. चरित्रवान होना ८. सत्य में रत रहना। अह अट्ठहिं ठाणेहेिं, सिक्खासीलेत्ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दंते, न य मम्ममुदाहरे।। नासीले न विसीले, न -सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीलेत्ति वुच्चई।। शिक्षा और विनय शिक्षा और विनय में गहरा संबंध है। जो विनीत होता है, वह शिक्षा को उपलब्ध होता है। अविनीत को शिक्षा प्राप्त नहीं होती। विनीत और अविनीत के जो लक्षण बतलाए गए हैं, उनसे विद्यार्थी की योग्यता को परखा जा सकता है। शिक्षास्थान, शिक्षाशील, विनीत और अविनीत का दर्शन प्रत्येक विद्यार्थी की कसौटी बन सकता है। जैन शिक्षा पद्धति के अनुसार उपरोक्त आचार-संहिता का अनुशीलन-अनुपालन करने वाला विद्यार्थी श्रेष्ठ होता है। इस आचार-संहिता को अपनाए बिना श्रेष्ठता उपलब्ध नहीं की जा सकती। इस आचार-संहिता को जीने वाला विद्यार्थी सहजता से बौद्धिक विकास कर सकता है, मानसिक विकास कर सकता है, दायित्व बोध को विकसित कर सकता है। आधार है शरीरसिद्धि शारीरिक, मानसिक और भावात्मक विकास का आधार है-शरीरसिद्धि। यदि शरीर की उपेक्षा कर दी जाए तो न बौद्धिक विकास संभव बनेगा, न मानसिक और भावात्मक विकास संभव होगा। काया को साधे बिना इनके विकास की संभावना नहीं की जा सकती। शरीरसिद्धि के बिना, आसन-प्राणायाम के बिना, प्राण और अपान की विशुद्धि के बिना सारे विकास अधूरे रह जाते हैं। उसी व्यक्ति की बुद्धि काम देती है, जिसका दिमाग स्वस्थ होता है। जिसका प्राण और अपान शुद्ध नहीं है, उसका दिमाग शुद्ध कैसे होगा? बुद्धि की स्फुरणा के लिए नाभि और उपस्थ पर ध्यान देना जरूरी है। यदि पेट शुद्ध है, अपान शुद्ध है, कोष्ठबद्धता नहीं है, मल का संचय नहीं है तो दिमाग स्वस्थ. स्वच्छ और निर्मल रहेगा, बुद्धि की स्फुरणा होगी, नए चिन्तन की शक्ति उद्भूत होगी। यदि अपान अशुद्ध है तो बुरी भावनाएं, बुरी कल्पनाएं जन्म लेंगी, बुद्धि भी कुंटित हो जाएगी। मस्तिष्कीय विकास भी अपान-शुद्धि पर निर्भर है। व्यक्ति मस्तिष्क के विकास पर जितना ध्यान देता है, उससे भी अधिक उसका ध्यान अपान-शुद्धि पर होना चाहिए। शरीरसिद्धि का एक अर्थ है-अपान-शुद्धि। शरीरसिद्धि का एक अर्थ है-मलों का संचयन ज्यादा न हो। वायु के वेग का ज्यादा होना एक बाधा है। पित्त और कफ का प्रकोप होना एक बाधा है। किस भोजन से वात, पित्त और कफ कुपित होते हैं, इसका विवेक आवश्यक है। किस प्रकार का भोजन करें और किस प्रकार का भोजन न करें, किस ऋतु में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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