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जैन शिक्षा प्रणाली
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के लिए होता है। वह जो कार्य करे, निर्जरा के लिए करे। जहां निर्जरा की बात गौण होती है, दूसरी बात प्रमुख होती है, मुनि अपने उद्देश्य से भटक जाता है।
जब तक भावात्मक विकास नहीं होता, दायित्व का पालन नहीं हो सकता। अहंकार का प्रतिपक्ष है विनम्रता। विनम्रता एक भाव है। क्रोध का प्रतिपक्ष है क्षमा। माया का प्रतिपक्ष है ऋजता। लोभ का प्रतिपक्ष है संतोष। यदि मृदुता की भावना का विकास नहीं है तो व्यक्ति बड़प्पन और छुटपन की भावना से बच नहीं सकेगा। अहंकार के कारण व्यक्ति के मन में अनेक धारणाएं जम जाती हैं-अमुक कार्य बड़प्पन का है, अमुक कार्य छुटपन का है। पढ़ना बड़ा काम है, झाडू लगाना छोटा काम है। व्यक्ति बड़प्पन या छुटपन का संबंध ऐसे कार्यों से जोड़ लेता है। जब तक यह छुटपन और बड़प्पन की बात व्यक्ति के मानस में बनी रहेगी तब तक किसी कार्य को छोटा अथवा बडा मानने की वत्ति समाप्त नहीं होगी। यह मनोवृत्ति दायित्व पालन में बहुत बड़ी बाधा बनती है।
एक मुनि बीमार है। उसके लिए दवा लाना है, उसे पानी पिलाना है अथवा उसका कोई शारीरिक कार्य करना है। एक ज्येष्ठ मुनि सोचे-यह सब मैं कैसे करूं? अमुक बाल मुनि आए तभी ये कार्य संभव हो सकते हैं। यदि इस अवधारणा से ग्रस्त होकर ज्येष्ठ मुनि बीमार मुनि की सेवा को गौण करता है तो वह अपने दायित्व पालन से विमुख होता है। एक मुनि का दायित्व बहुत विशाल और उदात्त होता है। भावात्मक विकास के बिना उसका पालन संभव नहीं बनता।
जैन शिक्षा पद्धति में भावात्मक विकास पर सर्वाधिक बल दिया गया। प्रत्येक शिक्षा पद्धति में विधार्थी और शिक्षक की एक आचार-संहिता होती है। जैन शिक्षा पद्धति में भी विद्यार्थी की समग्र आचार-संहिता उपलब्ध है। उसका प्राणतत्त्व है-भावात्मक विकास । शिक्षा की बाधाएं
अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई।
थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य।। पांच हेतुओं से व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त नहीं होती-१. मान, २. क्रोध, ३. प्रमाद, ४. रोग ५. आलस्य।।
शिक्षा की प्राप्ति में ये पांच बाधाएं हैं। जो व्यक्ति इन बाधाओं का पार पा लेता है, वह शिक्षा का अधिकारी होता है। रोग को शारीरिक बाधा माना जा सकता है, शेष चारों हेतु भावात्मक है। शिक्षाशील की विशिष्टताएं
उत्तराध्ययन सूत्र में शिक्षाशील का जीवन्त चित्रण उपलब्ध होता है। शिक्षाशील की जिन अर्हताओं का उल्लेख किया गया है, उन्हें विद्यार्थी की आचार-संहिता कहा जा सकता है। यदि इस आचार-संहिता को मूल्य दिया जाए तो वर्तमान शिक्षा की अनेक समस्याओं का समाधान उपलब्ध हो सकता है। शिक्षा के द्वारा जिस प्रकार के व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिए, उसका आधार बन सकती है जैन शिक्षा पद्धति की आचार-संहिता।
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