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इच्छा हु आगाससमा अणंतिया
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नहीं गिरा करती और ऐसे गिर जाए तो सारी दुनिया पर ही गिर जाए। हम लोग स्थूल जगत के नियमों को बहुत जानते हैं। अगर हम अव्यक्त जगत के नियम को जान लें, अव्यक्त इच्छा को बाहर से पोषण देना बन्द कर दें तो अविरति स्वयं पतली होनी शुरू हो जाएगी, क्षीण होनी शुरू जो जाएगी। उसकी जो सक्रियता है, प्रबलता है, वह कम होने लग जाएगी। ऐसा होते-होते वह एक दिन मुरझा जाएगी। उसका अस्तित्व बना रहेगा पर भीतर से उसका बहिर्निस्सरण लगभग बन्द हो जाएगा। राजर्षि का उत्तर
अविरति को मिटाने का पहला उपाय है-व्यक्त इच्छा का निग्रह। इच्छा भी एक नहीं है। उसकी एक शृंखला है। शरीर की इच्छा, खाने की इच्छा, कपड़े की इच्छा-इच्छा की एक अन्तहीन शृंखला है।
ब्राह्मण ने नमि राजर्षि से कहा-राजन! पहले आप चांदी, सोना, मणि, मोती, कांसे के बर्तन, वस्त्र, वाहन और भण्डार की वृद्धि करें, उसके बाद मुनि बनने की बात सोचें
हिरण्णं सवण्णं मणिमत्तं. कंसं सं च वाहणं।
कोसं वडूढावइत्ताणं, तओ गच्छसि खत्तिया!।। नमि राजर्षि बोले-तुम नहीं जानते। पदार्थ पदार्थ से कभी तृप्त नहीं होता। मैं जितने पदार्थ, धन सामग्री जुटाऊंगा, आग उतनी ही भभकती जाएगी, उस आग को बल मिलता चला जाएगा। तुम इच्छा की स्थिति को नहीं जानते। वह कभी तृप्त नहीं होती
सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।।
यदि सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ नहीं होता क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है। संदर्भ पर्यावरण विज्ञान का
व्यक्ति की इच्छाएं अनंत हैं और पदार्थ सीमित हैं। पर्यावरण विज्ञान का एक सिद्धांत है लिमिटेशन। उपभोक्ता अधिक हैं, पदार्थ सीमित। व्यक्ति की इच्छा को आकाश के साथ तुलित किया गया। इस दुनिया में इच्छा और आकाश-ये दोनों अनंत हैं। जीव की इच्छा का विस्तार आकाश की भांति अनंत है। वे कभी पूरी नहीं होती। इच्छा की पूर्ति का उपाय है-इच्छा का निग्रह करना, भीतर से जो मांग आ रही है. उसे अस्वीकार कर देना. उसके सामने घटने न टेकना। जैसे-जैसे यह अस्वीकार और निरोध की शक्ति बढ़ेगी, व्रत संवर पुष्ट होता चला जाएगा, अव्रत आश्रव क्षीण होता चला जाएगा और एक क्षण ऐसा आएगा, अव्रत आश्रव व्रत संवर बन जाएगा, क्षायिक संवर बन जाएगा। अविरति के क्षीण होने के बाद, उसके बीज के दग्ध होने के बाद उसका पुनः प्रसव नहीं होगा।
कई बार एक प्रश्न प्रस्तुत होता है-एक मुनि, जो मरकर स्वर्ग में चला गया, देवता बन गया, उसे वंदना करें या न करें। कहा गया-उसे वन्दना नहीं
की जा सकती। कल तक वह साधु था, इसलिए वंदनीय था किन्तु आज वह Jain Education International For Private & Personal Use Only
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