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इच्छा हु आगाससमा अणंतिया
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होता है? जिस वृत्ति को छोड़ने का संकल्प किया, वह क्यों उभरती है? इसका कारण बतलाया गया-सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करने से सावध प्रवृत्ति का संवरण हो गया किन्तु भीतर में जो अव्यक्त इच्छा है उसका अस्तित्व विद्यमान है।
__ इसे पारिभाषिक दृष्टि से समझें-वृत्ति का उपशम हुआ है, क्षयोपशम हुआ है किन्तु उसका सर्वथा क्षय नहीं हुआ है। बाहर से एक रुकावट हो गई किन्तु भीतर से उसका अस्तित्व बना हुआ है। भीतर में आग जल रही हैं, किन्तु वह राख से आच्छन्न है, ढकी हुई है। आग सर्वथा बुझी नहीं है, उसे मिलने वाला पोषण-ईंधन बंद हुआ है। अगर आग सर्वथा बुझ जाए, अविरति का सर्वथा क्षय हो जाए तो उसके पुनः पैदा होने की संभावना शेष हो जाती है। जिसके मिथ्यादर्शन क्षीण हो जाता है, जो क्षायिक सम्यक्त्व को पा लेता है, वह कभी मिथ्यादृष्टि नहीं बनता। इस बात की गहराई में जाएं सावध योग के त्याग से अव्रत आश्रव रुकता है किन्तु वह सर्वथा क्षीण नहीं होता। उससे अव्रत आश्रव की अभिव्यक्ति का निग्रह होता है किन्तु उसका अस्तित्व बना रहता है। अव्यक्त इच्छा को निष्क्रिय कैसे बनाएं?
एक व्यक्ति ने सर्व-सावध योग का त्याग किया, वह मुनि बन गया। इसका अर्थ है-जो अव्यक्त इच्छा विद्यमान है, उस पर एक ढक्कन लगा दिया। उस अव्यक्त इच्छा को योग से जो पोषण मिल रहा था, वह बन्द हो गया किन्तु इच्छा का अस्तित्व सर्वथा विनष्ट नहीं हुआ। भीतर आग जल रही है, उस पर बाहर से मजबूत ढक्कन दे दिया गया। उसकी ऊष्मा बाहर नहीं आएगी किन्तु उसके भीतर ऊष्मा या ताप नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता। यदि भीतर की ऊष्मा समाप्त हो जाए, ताप विनष्ट हो जाए तो आग कभी नहीं जलेगी।
असद् आचरण के त्याग का अर्थ है-व्यक्त इच्छा का निग्रह। व्यक्त इच्छा का निग्रह करना अव्यक्त इच्छा को कमजोर बनाना है। एक साधक सबसे पहले व्यक्त इच्छा का निग्रह करे। यदि एक मुनि के मन में लोभ जाग जाए तो वह उसका निग्रह करे। वह सोचे-'मैं मुनि बन गया हूं। मुझे इन चीजों का संग्रह नहीं करना है। मुझे दो वस्त्रों की ही जरूरत है और तीसरा सुन्दर है तो भी मुझे उसकी आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। मुझे अधिक पात्र नहीं रखना हैं। व्यवस्था का अतिक्रमण कर पात्र रखना मेरे लिए उचित नहीं है। इस प्रकार के चिन्तन से व्यक्ति अपनी इच्छा का निरोध कर लेता है, उसे अस्वीकार कर देता
है।
जो लोभ की वृत्ति जागी, वह प्रयोग में न आए, बाहर व्यक्त न हो पाए, यह है व्यक्त इच्छा का निग्रह। किसी वृत्ति का जागना एक बात है और उसका प्रयोग में आना दूसरी बात है। व्यक्ति के भीतर क्रोध का भाव जगा, किन्तु उसे अभिव्यक्त नहीं किया, क्रोध सफल नहीं होने दिया। क्रोध 3 चेहरा नहीं तमतमाया, हाथ ऊपर नहीं उठा, इसका अर्थ है-क्रोध को विफल कर दिया। क्रोध का प्रयोग नहीं करना निग्रह है। यानी क्रोध जाग गया किन्तु हाथ मत उठाओ, गाली मत बको, कलह मत करो, वह स्वतः शांत हो जाएगा।
क्रोध को प्रयोग में लाने से क्रोध का संस्कार पुष्ट होता है। क्रोध को विफल Jain Education International For Private & Personal Use Only
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