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आत्मना युद्धस्व
प्रतिक्रमण : रणनीति का एक अंग
आत्मयुद्ध का पांचवां उपाय है-प्रतिक्रमण । मुड़कर देखना भी जरूरी है । प्रतिक्रमण में व्यक्ति सोचता है— मैं क्या था, क्या हूं और मुझे क्या होना है? प्रतिक्रमण का अर्थ है - जिस स्थिति को स्वीकारा, आत्मयुद्ध को स्वीकारा, उस भूमिका पर पहुंचकर समग्र रूप से अपना विश्लेषण करना । प्रतिक्रमणं नहीं होता है तो कभी-कभी शिथिलता आ जाती है, कमजोरी आ जाती है, रसद की कमी भी हो जाती है । जब दूसरा महायुद्ध चल रहा था तब बार-बार रेडियो में एक स्वर सुनाई देता - आज बिट्रेन की सेना बड़ी बहादुरी के साथ पीछे हटी। पीछे भी हटी किन्तु बहादुरी के साथ। यह स्वर बहुत विचित्र लगता। पूछा गया - भाई ! पीछे हटने में कौनसी बहादुरी है? इसका स्पष्टीकरण दिया जाता - यह भी रणनीति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। आत्मयुद्ध की लड़ाई में कभी-कभी बहादुरी से पीछे हटना भी जरूरी है और इसी का नाम प्रतिक्रमण है ।
महावीर का आत्मयुद्ध का यह संदेश मानवीय चिन्तन या मानवीय चेतना के विकास का सबसे बड़ा उपक्रम है । निठल्ला बैठना, कायर होकर बैठना महावीर जैसे पराक्रमी व्यक्ति को पसंद नहीं था । पराक्रमी व्यक्ति कभी निकम्मा बैठना पसन्द नहीं करता, खाली होकर बैठना पसंद नहीं करता । वह हमेशा कुछ न कुछ करता रहता है । यह आत्मयुद्ध पराक्रमी व्यक्ति ही कर सकता है। इसमें जो व्यक्ति आता है, वह स्वयं सुखी बनता है और दूसरों को भी सुख बांटता है । 'आत्मना युद्धस्व' यह अध्यात्म का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है । इसकी गहराई में जाना, इसको जीना अपने आपको विजयी बनाना है 1
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