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महावीर का पुनर्जन्म
चारा रखा तो भी वह नहीं खा रहा है। बहुत देर तक चारा सामने पड़ा रहा। बकरे ने चारे को स्पर्श भी नहीं किया। राजा ने कहा- 'तुम उत्तीर्ण हो, पर बताओ! यह कैसे किया?'
वह बोला-'महाराज! तीन दिन हो गए। इसके साथ बराबर घूम रहा हूं। जब-जब इसने खाने का साहस किया, मेरा डंडा इसके सिर पर पड़ा और अब यह इतना प्रशिक्षित हो गया है कि खाने की हिम्मत ही नहीं कर रहा है।'
यह दमन की बात है, नियंत्रण की बात है। जब-जब भीतर से मांग हे. एक डंडा मारो। डंडा मारते-मारते मन प्रशिक्षित हो जाए. फिर सामने कितना ही चारा आए, बढिया पदार्थ आए, व्यक्ति उसे पसंद ही नहीं करता। नियंत्रण भी अनावश्क नहीं होता। यह भी एक प्रकार है लड़ने का।
वृत्ति को दबाना, दबाते रहना आवश्यक है। समाज में रहने वाला व्यक्ति हो या साधना के क्षेत्र में रहने वाला व्यक्ति, दबाने की बात सबके लिए प्राप्त होती है। कोई भी व्यक्ति एक साथ वीतराग नहीं बन जाता। यह अतिकल्पना है-आज ही साधु बना और आज ही वह वीतराग बन जाएगा। इन सीढ़ियों से चढ़ा रागी बनकर और उतरेगा वीतरागी बनकर, यह कभी संभव नहीं है। हर आदमी को प्रक्रिया से गुजरना होता है। उसमें नियंत्रण भी जरूरी होता है। अगर गुरु, आचार्य, व्यवस्था या संघ का नियंत्रण न हो तो व्यक्ति अपने पथ से भटक जाए।
आत्मयुद्ध का तीसरा उपाय है-ज्ञाताद्रष्टाभाव। जैसे-जैसे ज्ञाताद्रष्टाभाव का विकास होगा, आत्मयुद्ध की लड़ाई अधिक तेज बन जाएगी। मैं भोक्ता नहीं हूं, मैं द्रष्टा हूं। इस चेतना का जैसे-जैसे विकास होगा, आत्मयुद्ध अधिक प्रखर बन जाएगा, विजय की संभावना प्रबल बन जाएगी। नेतिवाद : चैतन्य की स्मृति
__ आत्मयुद्ध का चौथा उपाय है-सतत स्मृति, सतत जागरूकता। बौद्ध साहित्य का महत्त्वपूर्ण शब्द है-स्मृति प्रस्थान। व्यक्ति को निरन्तर अपनी स्मृति रहे, वह अपने प्रति निरन्तर जागरूक रहे। वह सोचे-मैं इन्द्रियां नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं। मैं कषाय नहीं हूं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस विषय पर बहुत प्रकाश डाला है। समयसार में नेतिवाद का एक पूरा प्रकरण है-मैं क्रोध नहीं हूं, मैं मान नहीं हूं, मैं माया नहीं हूं, मैं लोभ नहीं हूं, मैं यह नहीं हूं, मैं वह नहीं हूं, नेति-नेति करते चले जाएं-मैं राग नहीं हूं, मैं द्वेष नहीं हूं, मैं ईर्ष्या नहीं हूं, मैं घृणा नहीं हूं। नेति-नेति करते-करते शेष रहेगा केवल चैतन्य। मैं चैतन्य हूं, केवल चैतन्य हूं, और कुछ नहीं। यह सतत स्मृति आत्मयुद्ध का एक प्रकार है। उपनिषद् में नेतिवाद का विशद वर्णन है। आचारांग में भी नेतिवाद का पूरा प्रकरण है। इस नेतिवाद की सतत स्मृति अपने चैतन्य की स्मृति है।
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