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जहां निरपराध को दंड मिलता है
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जागे। इस स्थिति में ही सोचा जा सकता है-हम अपराध की रोकथाम में लगे हुए हैं, दण्ड का उच्छेद करने में लगे हुए हैं। इस मनःस्थिति में ही दंड का उन्मूलन किया जा सकता है, दंड को कम किया जा सकता है। जब तक चिन्तन का यह स्तर नहीं होगा तब तक कोई भी समाधान समाधानकारक नहीं होगा, उसका अर्थ भी समझ में नहीं आएगा। वह तभी समझ में आ सकता है जब यह प्रकाश-सूत्र व्यक्ति के सामने बराबर बना रहे। जरूरी है संस्कारों का निर्जरण
अध्यात्म के क्षेत्र में कहा गया-'नत्थि अवेयइत्ता तवसा वा झोसइत्ता'-कृतकर्म से छुटकारा पाने के दो ही मार्ग हैं-जो कर्म किया है, उसे भोग लिया जाए या तपस्या के द्वारा उसे क्षीण कर दिया जाए। ध्यान एक तपस्या है। ध्यान के द्वारा जो पुराने संस्कार अर्जित हैं, उन संस्कारों को क्षीण किया जा सकता है। वे संस्कार व्यक्ति को कभी हिंसा में ले जाते हैं, कभी झूठ, चोरी में ले जाते हैं, कभी अब्रह्मचर्य और संग्रह की लुभावनी वृत्ति में ले जाते हैं। कभी कलह, ईर्ष्या, निन्दा, चुगली, निराशा आदि में ले जाते हैं। ये सारे संस्कार व्यक्ति के भीतर विद्यमान हैं। इन संस्कारों के निर्जरण के लिए, इन संस्कारों को तोड़ने के लिए ध्यान का प्रयोग किया जाता है। संस्कारों को क्षीण करना अपराध को कम करना है। जब मनुष्य-समाज में व्यापक स्तर पर यह चेतना जागेगी-तपस्या के द्वारा पुराने संस्कारों को क्षीण करना है, अपनी निर्मलता को प्राप्त करना है-तब दंड की वृत्ति अपने आप कम हो जाएगी। तपस्या का विकास किए बिना समाज में अपराध कम हो सके, ऐसा संभव नहीं है। अध्यात्म के जगत् में जीने वाले, सांस लेने वाले लोग इस तथ्य पर बहुत गहराई से चिन्तन-मनन करें।
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