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________________ १५ आत्मना युद्धस्व एक जिज्ञासा लेकर शिष्य आचार्य की सन्निधि में प्रस्तुत हुआ। विनम्र भाव से वंदन कर उसने कहा-गुरुदेव! मैंने सुना है, पढ़ा है-भगवान महावीर इस संसार में अहिंसा के सबसे बड़े प्रवर्तक हुए है। उन्होंने अहिंसा को जितना मूल्य दिया, उतना महत्त्व किसी को नहीं दिया। मैंने यह भी सना है-महावीर युद्ध की भाषा में बोले, लड़ाई की भाषा में बोले, जय और पराजय की भाषा में बोले। मेरे मानस में यह प्रश्न घूम रहा है-महावीर युद्ध की भाषा में क्यों बोले? एक ओर अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन, दूसरी ओर युद्ध की भाषा का प्रयोग। इन दोनों में संगति कहां है? मनोवैज्ञानिक बतलाते हैं-युद्ध एक मौलिक मनोवृत्ति है। मनोविज्ञान में चौदह मौलिक मनोवृत्तियां मानी गई हैं। उनमें एक है युद्ध। क्या यह माना जाए-महावीर में भी एक मौलिक मनोवृत्ति विद्यमान थी? गुरु ने कहा-वत्स! महावीर अहिंसा के प्रवक्ता थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। महावीर युद्ध की भाषा में बोले, यह भी सचाई है। महावीर क्षत्रिय राजकुमार थे। युद्ध क्षत्रिय का प्रिय विषय होता है। कायरता : सबसे बड़ा पाप वस्तुतः लड़ना कोई बुरी बात नहीं है। बुरा है कायर होना। महावीर ने कायरता को सबसे बड़ा पाप बतलाया। बहुत लोग आक्षेप करते हैं-अहिंसा कायरता सिखलाती है, जैन धर्म ने कायरता सिखलाई। यह आरोपण भी कर दिया जाता है-हिन्दुस्तान परतन्त्र बना, उसमें जैन धर्म और बौद्ध धर्म का बहुत सहारा रहा है। इन धर्मों ने अहिंसा पर अधिक बल दिया इसलिए हिन्दुस्तान परतंत्र बन गया। इस आरोपण में कोई सचाई नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह बिलकुल मिथ्या बात है। अहिंसा के कारण कोई देश परतंत्र नहीं बनता। कायरता के कारण, आपसी फूट के और कलह के कारण ही कोई देश परतंत्र बनता है। जहां परस्पर वैमनस्य होता है, कलह और संघर्ष होता है, वहां परतन्त्र होने की सम्भावना बनी रहती है। जहां अहिंसा का विकास होता है, वहां फूट, बेईमानी और कलह को पनपने का अवकाश नहीं मिलता। युद्ध का होना अनिवार्य है __ मनुष्य का सबसे उदात्त गुण है-पराक्रम। विक्रम और पराक्रम मनुष्य के विशिष्ट गुण है। जहां विक्रम और पराक्रम होगा, वहां अभिक्रम निश्चित होगा। 'अभिक्रमो रणे यानम्', अभिक्रम का अर्थ है-युद्ध की दिशा में प्रस्थान। यह पराक्रम का लक्षण है। प्रश्न हो सकता है-युद्ध कहां करें? युद्ध भूमि कौन-सी हो? युद्ध किनसे करें? युद्ध कैसे करें? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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