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________________ ६६ महावीर का पुनर्जन्म दंडाभिमुखी है। उसके सामने दंड का प्रावधान मुख्य प्रश्न है। कानून कहता है-अमुक काम के लिए यह दंड है और अमुक काम के लिए यह दंड है। भारतीय दंड संहिता या किसी भी राष्ट्र की दंड-संहिता का रूप दंडात्मक ही होगा। किस अपराध के लिए क्या दंड दिया जाए, यह कानून का विषय है किंतु अपराध की स्थिति को कैसे मिटाया जा सकता है, यह दृष्टि वर्तमान कानून संहिता में प्राप्त नहीं है। अध्यात्म का ज्योति-स्तम्भ धर्म के क्षेत्र में कहा गया-प्रमाद मत करो। धर्म की भाषा भिन्न है। एक है अपराध की भाषा। धर्म के क्षेत्र में अपराध की भाषा नहीं है। धर्म के क्षेत्र में है प्रमाद की भाषा। राजनैतिक क्षेत्र में दंड की भाषा है, अध्यात्म में प्रायश्चित्त की भाषा है। प्रमाद और प्रायश्चित्त, अपराध और दंड। जहां अपराध है वहां दंड है। जिसका धर्म में विश्वास है, जिसने अपना दायित्व स्वयं संभाला है, जो किसी भी आचरण और व्यवहार के प्रति स्वयं जिम्मेदार है और जो इस दायित्व के साथ चलता है, उसकी भाषा प्रायश्चित्त की भाषा होगी। अध्यात्म का दृष्टिकोण है-अप्रमाद की साधना कैसे बढ़े? प्रमाद को कैसे मिटाया जाए? कभी-कभी धर्म के लोग भी इस तथ्य को विस्मृत कर देते हैं। किसी व्यक्ति से कहा जाए-तुम यह गलती मत करो, यह प्रमाद है, इसे छोड़ो। वह कहता है-मैं क्या करता हूं? बड़े-बड़े व्यक्ति भी ऐसा ही करते हैं। वे होशियार हैं इसलिए बच जाते हैं और मैं पकड़ा जाता है। यह भाषा भी बहुत खतरनाक है। कानून से कोई बच सकता है, छिपा भी रह सकता है, वहां वकील भी हो सकता है पर धर्म के क्षेत्र में न कोई वकील है, न कोई वकालात है। उसमें वकालत का धन्धा ही नहीं है। कोई बिचौला नहीं है, कोई दलाल नहीं है। अध्यात्म के क्षेत्र में एक ही ज्योति-स्तम्भ है 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' कृत कर्मों से छुटकारा नहीं है, मैं करूंगा तो मैं भोगूंगा। किसी को पता चले या न चले, कोई देखे या न देखे, कोई जाने या न जाने। इसका कोई मूल्य नहीं है। जो करेगा, वह भरेगा, जो बोएगा, वह काटेगा। यह ज्योति स्तम्भ ही व्यक्ति को अन्धकार की ओर बढ़ने से रोकता है। इससे व्यक्ति में केवल नैतिक दायित्व और कर्त्तव्य की भावना जागती है। नैतिक कर्त्तव्य की चेतना जागे इंग्लैंड की घटना है। पुलिस का सिपाही चोराहे पर खड़ा था। एक कार आ रही थी। कार में कुछ बड़े लोग बैठे थे। कार गलत ढंग से चल रही थी। सिपाही ने कार को रोका। भीतर से आवाज आई-तुम जानते नहीं हो, इसमें कौन बैठे हैं? सिपाही बोला--आप कौन हैं, इससे मुझे कोई लेना देना नहीं है। यदि कार में स्वयं सम्राट् बैठा है तो भी मुझे कोई मतलब नहीं है। मेरा कर्तव्य है-जो कार गलत चलाए, उसका चालान कर देना। मैं तुम्हारा चालान करता हूं। जब नैतिक कर्त्तव्य की चेतना जागती है तब ऐसा सम्भव बनता है। प्रत्येक व्यक्ति सोचे-मैंने जो नैतिक कर्तव्य स्वीकार किया है, जो दायित्व ओढा है, वह मेरा दायित्व है, कर्त्तव्य और धर्म है। यह विवेक चेतना प्रत्येक व्यक्ति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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