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जहां निरपराध को दंड मिलता है
गई। उनमें समाज की व्यवस्था के बारे में सोचा गया किन्तु उसे धर्म का रूप दे दिया गया इसलिए समाज का स्वतंत्र चिंतन नहीं हुआ ।
इन दशकों में समाज के विषय में स्वतन्त्र चिंतन का विकास हुआ है । विज्ञान की एक स्वतन्त्र शाखा बन गई - समाज - विज्ञान । उसमें समाज के बारे में सोचा गया है किन्तु उसके सामने जो शीशा रहा, वह राजनीति का रहा इसलिए समाज में जो परिवर्तन आना चाहिए, वह नहीं आया। जहां स्वस्थ समाज की रचना का, अहिंसक समाज की रचना का चिंतन चले वहां अपराध कम होने चाहिए, चोरी और डकैतियां कम होनी चाहिए किन्तु वे कम नहीं हुई हैं। इस युग में चोरियां अधिक बढ़ी हैं, डकैतियों के कारगर तरीके विकसित हुए हैं। प्रायः देखा गया है— बैंक की डकैतियों में आज के पढ़े-लिखे युवक का हाथ ज्यादा रहता है। इस स्थिति में यह चिंतन सार्थक लगता है— जब तक नैतिक कर्त्तव्य को छोड़कर केवल कानूनी आधार पर समाज की व्यवस्था का संचालन होगा तब तक स्वस्थ समाज की रचना संभव नहीं बन पाएगी। आज अपराध करने वाले को अगर कुशल व्यक्ति का सहारा मिल गया, अच्छा वकील मिल गया फिर चाहे उसका कितना ही बड़ा अपराध हो, वह व्यक्ति बच जाएगा। यह सारा कानून के आधार पर होता है । अध्यात्म का सूत्र है -अंगुली वहीं टिकाओ, जहां दर्द हो । अंगुली दूसरी जगह पर मत टिकाओ, कोरी झूठी सहानुभूति मत रखो।
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अपराध का मूल : संग्रह की मनोवृत्ति
एक व्यक्ति से पूछा- तुमने हाथों पर पट्टी क्यों बांधी है? क्या कोई चोट लग गई? हड्डी टूट गई? उसने कहा- मेरे मित्र की हड्डी टूट गई इसलिए उसकी सहानुभूति में मैंने पट्टी बांधी है ।
जहां कोरी सहानुभूति की भाषा होती है वहां बदलाव की बात संभव नहीं बनती। जहां दर्द है, वहीं पट्टी बांधें। जहां दर्द है वहीं अंगुली टिकाएं। मनुष्य में आकांक्षा और लोभ है, संग्रह की प्रवृत्ति है, यह अपराध का मूल I इसका इलाज किए बिना अपराध की समस्या को समाहित नहीं किया जा सकता । जिस समाज में अपराध के मूल कारणों की रोकथाम का प्रयत्न किया जाता है, वह समाज स्वस्थ होता है । जिस समाज में दंड देने की स्थिति कभी-कभी आती है, विशेष परिस्थिति में ही दंड का प्रयोग होता है, उस समाज में स्वस्थ वातावरण निर्मित होता है। यह नहीं कहा जा सकता - दण्ड बिलकुल ही अप्रभावकारी बन जाए, निवृत्त हो जाए । यह अतिवाद है । समाज व्यवस्था में दंड की आवश्यकता को सर्वथा अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
कानून की अभिमुखता
इस मानव समाज में पांच अरब आदमी हैं और बढ़ते ही चले जा रहे हैं । इतने बड़े मानव समाज में दंड न हो, यह नहीं सोचा जा सकता किन्तु यह सोचा जा सकता है- क्या दंडाभिमुख होकर ही सारा चिंतन करें या अपराध न हो, इस दिशा में सोचें। समाज की अभिमुखता किस दिशा में जा रही है? समाज होनी चाहिए ? कानून की सारी अभिमुखता
की अभिमुखता किस दिशा में
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