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दोय मिल्यां दुःख होय
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सकता है । यदि भीतर में रहना सीख जाएं, अपने आप में रहना सीख जाएं और बाहर में जीएं तो इस समस्या का समाधान हो सकता है । जो व्यक्ति केवल बाहर में जीता है, वह सचमुच खतरनाक बन जाता है। बाहर में जीने वाला व्यक्ति ज्यादा लड़ाई झगड़ा करेगा। एक सुन्दर समाधान दिया गया - इस द्वन्द्वात्मक सृष्टि में जीते हुए भी उल्टे चलो, द्वन्द्वात्मकता से हटकर चलो। अध्यात्म का सूत्र है -: - भीतर में रहना सीखो किन्तु यह भीतर में रहने वाली बात समझ में कुछ कम आती है। एक आदमी घर में बैठा है और बाहर गली में लड़ाई शुरू हो गई। वह तत्काल बाहर आ जाएगा क्योंकि भीतर में रहना उसे पसंद नहीं है ।
शरीर की, जीवन की सारी यात्रा चलाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को बाहर जाना ही पड़ेगा। एक अपेक्षा से वीतराग को भी बाहर जाना पड़ता है। उसे भी जीवन चर्या में चलना पड़ता है । कुछ लोग कहते है-हम तो बिल्कुल मौनी और संन्यासी हैं, कुछ भी नहीं करते किन्तु उन्हें भी खाने-पीने की यात्रा करनी ही पड़ती है। उसके बिना जीवन चलता ही नहीं है। एक गृहस्थ को चौबीस घण्टे में कम-से-कम एक घण्टा भीतर रहने का अभ्यास करना ही चाहिए । प्रसिद्ध कहावत है
अट्ठावन घड़ी पाप की और दोय घड़ी आप की । अट्ठावन घड़ी काम की और दोय घड़ी राम की ।
यह सन्तुलन का स्वर है-तेईस घंटा बाहर रहें तो एक घण्टा अपने घर में रहना सीखें। एक मुनि को लम्बे समय तक भीतर रहना चाहिए। उसे कम-से-कम तीन घण्टा तो भीतर रहना ही चाहिए । स्वाध्याय करना, ध्यान करना, अनुप्रेक्षा करना भी भीतर में रहना है। स्वाध्याय, जप, प्रतिक्रमण – ये सब भीतर में रहने के उपक्रम हैं । यदि व्यक्ति इन उपक्रमों में जीता है तो वह बाहरी जगत् में रहते हुए भी सन्तुलन बनाए रख सकता है। जब यह सूत्र जीवन में घटित होता है, तब 'दोय मिल्यां दुःख होय' इसका रहस्य हृदयंगम हो जाता है । व्यक्ति इस सचाई तक पहुंच कर दुःख को भी मिटा सकता है और अकेलेपन की अनुभूति भी कर सकता है ।
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