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रहा है। उसे नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ाया जाता, इसलिए वह अपने राष्ट्रीय दायित्वों और कर्तव्यों का पालन नहीं कर पा रहा है।
नई शिक्षा-नीति के परिपार्श्व में शिक्षा के आमूलचूल परिवर्तन के स्वर उभर रहे हैं। केवल पढ़ाने की प्रणाली बदलने से आमूलचूल परिवर्तन नहीं होगा। उसके लिए शिक्षा के स्वरूप को बदलना आवश्यक है। उस स्वरूप की प्रतिष्ठा अपेक्षित है, जिसमें बौद्धिक विकास, व्यवहार शुद्धि या नैतिकता, श्रमनिष्ठा और दायित्वबोध-इन सबकी समन्विति फलित हो सके।
शिक्षा के बारे में भारतीय चिंतन अभी स्वस्थ नहीं है। बड़े-बड़े लोगों का स्वर है कि हमारी शिक्षा-प्रणाली गलत है। यह स्वर अनगिन बार पुनरुच्चारित हुआ है, पर अभी कोई समाधान नहीं निकल पाया है। हमारी दृष्टि में यह ठीक नहीं है। शिक्षा-प्रणाली गलत है, उसकी अपेक्षा यह कहना उचित होगा कि शिक्षा प्रणाली अपर्याप्त है। उसमें बौद्धिक विकास पर अधिक बल दिया गया है, भावात्मक विकास की उपेक्षा की गई है। यह असंतुलन ही सिरदर्द बना हुआ है। अनुशासन, चरित्र-विकास तथा अपराधी मनोवृत्ति के परिवर्तन के लिए बौद्धिक विकास की अपेक्षा भावात्मक विकास अधिक मूल्यवान् है।
प्रस्तुत पुस्तक में जीवन-विज्ञान शिक्षा और समाज के संदर्भ में चर्चित है। व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए इस चर्चा की उपयोगिता बुद्धिगम्य होगी। मुनि धनंजयकुमार, मुनि प्रशांतकुमार एवं प्राचार्य संपत जैन ने प्रस्तुत पुस्तक को बी० ए० के विद्यार्थियों के लिए समाकलित किया है। ‘सा विद्या या विमुक्तये' का सूत्र विमुक्ति का नया भाष्य प्रस्तुत कर सकेगा, ऐसा मेरा संकल्प है।
आचार्य महाप्रज्ञ
१५ अगस्त '९२ जैन विश्व भारती लाडनूं
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