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________________ ६० जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग स्थान है- दर्शनकेन्द्र | दर्शनकेन्द्र पर ध्यान करने वाला व्यक्ति अन्तर्दृष्टि को उपलब्ध हो जाता है । अन्तर्दृष्टि मन एवं बुद्धि की सीमा से परे है। जहां मन, वृद्धि और विवेक की सीमा समाप्त हो जाती है, उससे परे की सीमा है- अन्तर्दृष्टि का विकास। समूचा धर्म अन्तर्दृष्टि के विकास से उपजा है। जिसकी अन्तर्दृष्टि जाग जाती है उसका चिन्तन, उसके विचार, उसके निर्णय- सारे अलौकिक हो जाते हैं। हम किसको लौकिक और किसको अलौकिक मानें? कोई बीच में सीमा रेखा तो होनी चाहिए। दोनों की सीमा रेखा है अन्तर्दृष्टि । अलौकिक है अन्तर्दृष्टि का व्यवहार जगत् हैं। एक बुद्धि का जगत् और दूसरा है अतीन्द्रिय ज्ञान का जगत्। दोनों के बीच में है अन्तर्दृष्टि का जगत्। जहां तक बुद्धि है वह है लौकिक और बुद्धि से परे अन्तर्दृष्टि की सीमा में प्रवेश करना है- अलौकिक । अन्तर्दृष्टि का निर्णय, अन्तर्दृष्टि का व्यवहार, अन्तर्दृष्टि का आचार- सारा अलौकिक होता है बुद्धि का व्यापार, बुद्धि का व्यवसाय, बुद्धि का निर्णय और बुद्धि का आचरण - यह सारा लौकिक होता है। राजा ने प्लेटो को फांसी की सजा दे दी। संयोगवश फांसी नहीं हो सकी। गुलाम बना दिया। गुलाम बनना भी बहुत बड़ा दण्ड था उस समय । किसी स्वतंत्र व्यक्ति को गुलाम बना देना और उसे मालिक की इच्छा पर निर्भर कर देना, यह दण्ड था। स्वामी चाहे तो पीटे, मारे, जो चाहे सो करे । प्लेटो को गुलाम बना दिया । सचाई का पता चला तो उसे मुक्त कर दिया। गुलामी से वह मुक्त हो गया। राजा ने क्षमा मांगते हुए कहा- मैंने अपराध किया। बिना सचाई को पहचाने, आपको कष्ट दिया, फांसी की सजा दी, मैं क्षमा चाहता हूं, आप मुझे क्षमा करें। प्लेटो ने कहा- 'मैं सत्य की शोध में लीन हूं। ' मुझे पता ही नहीं कि तुमने फांसी की सजा दी और तुमने मुझे गुलाम बनाया। किसकी माफी दूं, किसको क्षमा करूं । क्या यह कोई लौकिक निर्णय हो सकता है? क्या यह कोई बुद्धि का निर्णय हो सकता है? यदि बुद्धिवादी आदमी होता तो बड़ा अभियोग पत्र तैयार करता । कितने तर्क प्रस्तुत करता कि तुमने बिना सोचे-समझे मुझे दण्ड दिया, मुझे फांसी की सजा दी, गुलाम बनाया, इतना कष्ट दिया और अब क्षमा चाहते हो। क्या यह संभव है? यह कभी नहीं होगा। जब तक प्रतिशोध न ले लूं, जब तक बदला न ले लूं तब तक क्षमा की बात नहीं हो सकती। न जाने कितने ऐसे स्वर सुनने को मिलते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
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