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जीवन विज्ञान - शिक्षा की अनिवार्यता
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अमेरिका में एक संस्थान ऐसा है, जिसके सदस्य दवा का प्रयोग नहीं करते। वे कोई दवा नहीं लेते। ऑपरेशन की आवश्यकता होने पर भी ऑपरेशन नहीं कराते । सदस्य थोड़े हैं, पर जो हैं, वे कट्टरता से इसका पालन करते हैं। वे सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देते हैं।
अपने से अपनी चिकित्सा का सिद्धांत
'तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा जैन मुनि चिकित्सा की इच्छा न करे। यह बहुत प्राचीन सिद्धांत है। जैन आगमों में यह उल्लेख स्थान-स्थान पर मिलता है। यह कैसे सम्भव हो सकता है कि बीमारी हो और चिकित्सा न हो ? चिकित्सा हो सकती है पर वह बाहरी वस्तु से न हो, यह इस सूत्र का हार्द है। स्वावलम्बन और स्व-निर्भर होकर अपनी वस्तु से चिकित्सा करो, बाह्य वस्तु से चिकित्सा मत करो, पर वस्तु से चिकित्सा मत करो ।
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शरीर में रोग पैदा होता है तो शरीर में निरोगता की भी पूरी व्यवस्था है। आसनों का विकास हुआ था चिकित्सा के लिए। बाहरी वस्तुओं की अपेक्षा नहीं है। आसनों का प्रयोग करो, चिकित्सा हो जाएगी । श्वास और विभिन्न मुद्राओं का प्रयोग रोग निवारण की दिशा में हुआ था। इसमें नाड़ी - विज्ञान का पूरा उपयोग किया गया था।
पाचन कमजोर है, भोजन के बाद वज्रासन में बैठो, पाचन की दुर्बलता मिट जाएगी।
पाचन की गड़बड़ है। भोजन के बाद दाएं नथुने से पन्द्रह मिनट तक श्वास लो, पाचन स्वस्थ होने लगेगा।
पाचन दुर्बल है। महामुद्रा का प्रयोग करो, पाचन ठीक होने लगेगा।
प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए आसन और नाड़ियों का प्रयोग तथा स्वर का प्रयोग खोजा गया था। हजारों आसनों का प्रयोग होने लगा। शारीरिक बीमारी हो तो आसनों का प्रयोग किया जा सकता है, और मानसिक बीमारी के लिए भी आसनों का प्रयोग किया जा सकता है।
आत्मानुशासन का विज्ञान
ये सारे तथ्य स्वावलम्बन और आत्मनुशासन के लिए खोजे गए थे। आत्मानुशासन का अर्थ इतना ही नहीं है कि अपने पर अनुशासन करो, हाथ मत हिलाओ, पैर मत हिलाओ । आत्मानुशासन का अर्थ है- शरीर में कोई गड़बड़ी है, उसका प्रतिकार बाह्य वस्तु से नहीं, भीतर की व्यवस्था से करो,
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