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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग की बात करते हैं, वे भी पक्षपात से ग्रस्त हैं। कोई भी पक्षपात से मुक्त नहीं है। मुक्त होगा भी कैसे? जब तक झुकाव है, आकर्षण है, विकर्षण है, प्रियता है, अप्रियता है, राग है, द्वेष है, तब तक कोई पक्षपात से मुक्त हो नहीं सकता। मात्रा का अन्तर हो सकता है। कोई व्यक्ति शत-प्रतिशत पक्षपात से ग्रस्त हो, तो कोई अस्सी प्रतिशत और कोई साठ प्रतिशत ग्रस्त हो सकता है लेकिन कोई सर्वथा पक्षपात से मुक्त हो नहीं सकता। इस स्थिति में हम निष्पक्षता की बात नहीं सोच सकते।
हमारा सारा व्यवहार झुकाव के आधार पर चलता है। अध्यात्म कहां से होगा? अध्यात्म की अनुभूति तब होगी, जब हम प्रयोग करें। एक दिन का प्रयोग करें। एक दिन में कुछ घटनाओं का प्रयोग करें। सारी घटनाओं के बारे में कहना कठिन है पर कुछ घटनाओं के बारे में कहा जा सकता है। कोई घटना घटी, उसमें प्रियता और अप्रियता की दृष्टि रही या समता की दृष्टि रही? उस घटना को प्रिय-अप्रिय संवेदन के आधार पर देखा या उनसे मुक्त होकर देखा? यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है, यह आध्यात्म की चेतना है। इसमें कहीं कोई सम्प्रदायवाद नहीं है।
व्यवहार में चलने वाला आदमी व्यवहार को ज्यादा मूल्य देता है इसलिए उसकी शिक्षा भी व्यवहार पर आधारित है। जब रोटी की पूरी व्यवस्था हो जाती है और बौद्धिक विकास की पूरी तैयारी हो जाती है तो फिर शिक्षा की संपूर्ति मान ली जाती है। शिक्षा के साथ जीवन विज्ञान क्यों ?
अध्यात्म के लोग उस शिक्षा को पूरा नहीं मानते, अपर्याप्त मानते हैं। इसका कारण क्या है? लोग जिसे पूरी शिक्षा मानते हैं, लोकोत्तर के व्यक्ति उसे अधूरी शिक्षा क्यों मानते हैं? क्या यह उनकी दृष्टि का भ्रम है या उसमें सचाई भी है? एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जीवन विज्ञान की शिक्षा को अध्यात्म की शिक्षा के साथ जोड़ने का अर्थ क्या है? प्रयोजन हमारे सामने स्पष्ट होना चाहिए। जीवन विज्ञान की अनिवार्यता को वर्तमान युग की अपेक्षाओं के संदर्भ में समझा जा सकता है।
समाज में सदा नि:शस्त्रीकरण की अपेक्षा रहती है। जहां-तहां शस्त्रीकरण होता है वहां खतरे बढ़ते हैं, भय बढ़ता है। सारा भय शस्त्रों का है। यदि शस्त्र न हों तो दुनिया में कोई भय नहीं। भयभीत मनुष्य ने शस्त्र का आविष्कार
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