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शिक्षा की समस्याएं
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प्रतिबन्ध है और न आन्तरिक प्रतिबन्ध। उसका परिणाम है वहां पागलपन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। यह निश्चित है कि आदमी जितना अधिक कामुक होगा, शक्ति का उतना ही क्षरण अधिक होगा। जब शक्ति ज्यादा क्षीण होती है। तब चित्त में बेचैनी, पागलपन और अस्त-व्यस्तता आती है। फिर उस व्यक्ति में शान्ति की भूख जागती है। वह खोजता है, शांति कैसे मिले? अशांति और है क्या? अशांति और कुछ भी नहीं। शक्ति का जितना अधिक क्षरण होता है, उतनी ही मात्रा में अशांति भीतर जागती है। हिंसा ने आदमी को कितना क्रूर और पागल बनाया है? परिग्रह के चिंतन और ममत्व प्राणशक्ति का कितना
क्षरण किया है?
प्राणशक्ति के विषय में आज कहीं कोई चिन्तन नहीं है । सब हिंसा-अहिंसा की चर्चा में और ब्रह्मचर्य अब्रह्मचर्य की चर्चा में ही उलझ जाते हैं। परिग्रह और अपरिग्रह को वाद-विवाद का विषय बना देते हैं परन्तु इन सबके पीछे जो मूल कारण था, वह था प्राणशक्ति का संरक्षण। यह भी खोज लिया गया-चित्त का जितना असंतुलन, जितनी विषमता होगी, प्राणशक्ति का व्यय भी उतना ही अधिक होगा। प्रियता और अप्रियता का संवेदन जितना होगा, प्राणशक्ति का व्यय भी उतना ही अधिक होगा इसलिए एक सूत्र दिया समता, सामयिक और संतुलन का । प्रिय-अप्रिय परिस्थिति होने पर मन का संतुलन न बिगड़े, समभाव बना रहे। समभाव और समता से प्राणशक्ति का संवर्धन होता है, संरक्षण होता है। समभाव का अभ्यास मन का तीसरा आयाम है। आदमी मन के दो आयामों में जीता है। एक प्रियता का आयाम और दूसरा है अप्रियता का आयाम । समता का आयाम उसे कभी नहीं मिला।
दुष्परिणाम असंतुलन के
यथार्थ में शिक्षा का मूल उद्देश्य है - मन का संतुलन, मन की शांति, मन का निर्विकल्प होना । इस ओर लोगों ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। शिक्षा जगत् में भी यह उद्देश्य उपेक्षित ही रहा । व्यक्ति पढ़-लिखकर अच्छा वैज्ञानिक बन जाता है, इन्जीनियर या डाक्टर बन जाता है, विशेषज्ञ बन जाता है, फिर भी वह लड़ाई करता है, निन्दा और ईर्ष्या में फंसा रहता है, आत्महत्या कर लेता है। यह क्यों? यह बड़ा प्रश्न है। अशिक्षित व्यक्ति बुराइयों में फंसे, यह समझ में आ सकता है, परन्तु शिक्षित व्यक्ति भी उतनी ही बुराई करे, यह आश्चर्य है। एक वैज्ञानिक जब ईर्ष्या और आवेश की ज्वाला में जल उठता है और
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