SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन विज्ञान : स्वरूप और आवश्यकता बन जाता है। जो उपयोग नहीं कर पाता, उसकी सारी क्षमताएं सोयी रह जाती जीवन विज्ञान के द्वारा विद्यार्थी में यह आस्था जागृत होती है कि हमारे भीतर अनन्त क्षमताएं हैं और हम उन्हें सक्रिय कर सकते हैं, उनसे लाभ उठा सकते हैं। आस्था का निर्माण करना बहुत बड़ी निष्पत्ति है। महान् इतिहासकार टॉयनबी ने लिखा-आस्था और रोटी- ये दो प्रश्न हैं। आस्थाहीन रोटी और रोटीविहीन आस्था-दोनों हमारे लिए खतरे बन सकते हैं। ___ आज सारा ध्यान रोटी पर केन्द्रित हो गया है। आस्था की बात गौण हो गई है। लोग सोचते हैं, आस्था रहे या न रहे, रोटी होनी चाहिए। रोटी आवश्यक है, पर इस तथ्य को विस्मृत नहीं करना चाहिए कि रोटीविहीन आस्था से काम नहीं चलता तो आस्थाविहीन रोटी भी आदमी को कभी-कभी खाने लग जाती है, भयंकर बन जाती है। दोनों का संतुलन हो। रोटी भी हो और आस्था भी हो। आस्था को छोड़कर आदमी जी नहीं सकता। जब आस्था लड़खड़ा जाती है तब आदमी के घुटने टिक जाते हैं। हम प्रत्येक विद्यार्थी में उसकी क्षमता के अनुसार आस्था उत्पन्न करें। उसमें ऐसी आस्था पैदा हो जाए कि कोई भी कार्य असंभव नहीं है। सभी कार्य संभव हैं। यदि उचित प्रयत्न, दृढ़ अध्यवसाय और उचित साधन-सामग्री का संयोजन और संकलन हो तो प्रत्येक कार्य को सम्भव बनाया जा सकता है। त्रिआयामी परिष्कार जीवन विज्ञान का चौथा अर्थ है-परिष्कार। यह परिष्कार तीन आयामों में हो-दृष्टिकोण का परिष्कार, व्यवहार का परिष्कार और भावना का परिष्कार। मिथ्यादृष्टिकोण, मिथ्याव्यवहार और मिथ्याभावना-ये तीनों मनुष्य को उत्थान की ओर नहीं ले जाते, पतन की ओर ले जाते हैं। किसी भी राष्ट्र के उत्थान और पतन का इतिहास पढ़ें, किसी भी समाज और व्यक्ति के उत्थान और पतन की कहानी पढ़ें, उनकी गहराई में तीन बातें मिलेंगी। उत्थान के तीन कारण हैं-सम्यक् दृष्टिकोण, सम्यक् व्यवहार और सम्यक् भाव। पतन के तीन कारण हैं-मिथ्यादृष्टिकोण, मिथ्याव्यवहार और मिथ्याभाव। ये उत्थान-पतन के मूलभूत कारण हैं। अवान्तर कारण सैंकड़ों-हजारों हो सकते हैं, पर वे मूल के उपजीवी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy