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जीवन विज्ञान : सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास का सकल्प
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मानता है और यहूदी नाजी को पागल कुत्ता जैसा मानता है। यह जातिगत विद्वेष है। विचारधारा के आधार पर भी यह विद्वेष पनपता है। एक संप्रदाय वाला दूसरे संप्रदाय वाले को हीन मान रहा है और अपने आपको उच्च प्रमाणित कर रहा है। ये सारे जो विद्वेष पनपे हैं, वे इस आधार पर पनपे हैं कि अहिंसा का जो सूत्र था मानव जाति की एकता का, उसे भुला दिया गया। मनुष्य जाति एक है
'मनुष्य जाति एक है-इस मूल्य की प्रतिष्ठा हमारी अनेक समस्याओं का एक समाधान है। कुछ लोगों ने इस दिशा में प्रयत्न किए। इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रयत्न है महात्मा गांधी का । उन्होंने इन सारे विद्वेषों को मिटाने के लिए काफी प्रयत्न किए और अहिंसा के प्रति आस्था उत्पन्न करने का अथक प्रयास किया। किन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है, घटनाएं स्वयं प्रमाण हैं कि वह प्रयत्न एक सीमा तक सफल हुआ, किन्तु व्यापक स्तर पर सफल नहीं हो सका। इसका कारण यही है कि जो प्रयत्न हुआ, वह बड़े लोगों में हुआ। अवस्था पक गई, विचार परिपक्व बन गए, धारणाएं पक गईं, उन लोगों में प्रयत्न हुआ। जब तक एक प्रभावशाली वातावरण रहा, परिस्थिति रही, तब तक तो लगा कि हिन्दुस्तानी मानस अहिंसा के निकट जा रहा है, किन्तु जैसे ही वह साया उठा, वह प्रभावी व्यक्तित्व सामने नहीं रहा और हिंसा देखते-देखते उग्र बन गई। जैसे ही हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन हुआ, हिंसा ने क्या रूप लिया ? कितनी उग्रता सामने आई ? इस घटना से एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हिंसा की शक्ति भी कमजोर नहीं है। अहिंसा को अगर हम शक्तिशाली मानें तो हिंसा का शक्ति भी कम नहीं है और घटनाओं के आधार पर, इतिहास के साक्ष्यों के आधार पर तो यह कहा जा सकता है कि समय-समय पर हिंसा ने अपना जो रौद्र रूप दिखाया है, अहिंसा उतना सौम्य रूप नहीं दिखा पाई है। तो फिर हम पराजय स्वीकार कर लें कि समाज के लिए अहिंसा का मूल्य कोई स्थायी या शाश्वत मूल्य नहीं है और हम हिंसा का वरण इसलिए करें कि हिंसा का मूल्य समाज के लिए ज्यादा कारगर है। किन्तु यह भी स्वीकार नहीं किया जा रहा है। जहां-जहां हिंसा की समस्या उग्र बनती है, तत्काल ध्यान अहिंसा की ओर जाता है। जहां विवाद उग्र होता है, वहां तत्काल ध्यान समझौते की ओर जाता है। सब कहते हैं कि हिंसा की समस्या सुलझनी चाहिए, विवादों का अन्त आना चाहिए।
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