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________________ जीवन विज्ञान : सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास का संकल्प तन्त्र के संतुलन का प्रयत्न 1 व्यक्ति समाज का एक अंग है । वह सामाजिक जीवन जीता है। समाज के सन्दर्भ में उसके जीवन का विकास होता है। व्यक्ति और समाज को सर्वथा अभिन्न नहीं किया जा सकता तो उन्हें सर्वथा भिन्न भी नहीं किया जा सकता। उनमें भेद का सूत्र है - वैयक्तिकता । वह समाज में नहीं है । व्यक्ति की अपनी विशेषता है। उनमें अभेद का सूत्र है - तन्त्र ! समाज में तन्त्रों का एक समवाय है- अर्थतन्त्र, राजतन्त्र, व्यवसायतन्त्र, शिक्षातन्त्र, और धर्मतन्त्र । जीवन संचालन के लिए अर्थ, राज्य और व्यवसाय का तन्त्र काम कर रहा है। जीवन विकास के लिए शिक्षा और धर्म का तन्त्र काम कर रहा है। वर्तमान में ये तन्त्र संतुलित नहीं है । अर्थतन्त्र के साथ अपरिग्रह या व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा जुड़ी हुई नहीं है इसलिए वह असन्तुलित बना हुआ है। राज्यतन्त्र केवल नियंत्रण के आधार पर चल रहा है, उसके साथ हृदय परिवर्तन का प्रयोग जुड़ा हुआ नहीं है, इसलिए वह भी असंतुलित है । व्यवसाय तन्त्र में प्रामाणिकता या नैतिकता का प्रयोग नहीं है इसलिए उसमें भी सन्तुलन नहीं है । शिक्षातन्त्र एकांगी विकास की परिक्रमा कर रहा है। वह सर्वांगीण विकास की धुरी पर नहीं चल रहा है, इसलिए वह भी अपना सन्तुलन खो बैठा है । धर्मतन्त्र में उपासना का स्थान मुख्य है और चरित्र का स्थान गौण है, इसलिए उसका सन्तुलन भी गड़बड़ाया हुआ है। इस असन्तुलन की स्थिति में हम आत्मानुशासन और चरित्र - विकास की बात नहीं सोच सकते । जीवन-विज्ञान तन्त्र में संतुलन स्थापित करने का प्रयास है। उसका एक पक्ष है अणुव्रत और दूसरा पक्ष है प्रेक्षाध्यान । अणुव्रत संकल्प-शक्ति का प्रयोग है । व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा का संकल्प अणुव्रत है और उस संकल्प की पुष्टि अभ्यास के द्वारा हो सकती है। वह अभ्यास पद्धति है - प्रेक्षाध्यान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
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