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________________ १७८ जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग पर समाज-व्यवस्था को नहीं चला सकता । समाज के व्यवस्थित संचालन के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चारों पुरूषार्थ अपेक्षित माने जाते हैं | धर्म और मोक्ष को नहीं छोड़ा जा सकता तो अर्थ और काम की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। समाज में सबकी अपेक्षा है। इनका संतुलन चाहिए। एकांगी धार्मिक विकास भी कभी-कभी अन्धविश्वास में बदल जाता है। अतः चारों का समन्वित विकास ही समाज को स्वस्थ रख सकता है। मस्तिष्क के सभी उत्तरदायी केन्द्रों को एक साथ सक्रिय करना जरूरी है, जो वास्तविक मूल्यों के मूल स्रोत हैं। यही जीवन-विज्ञान की परिकल्पना का आधार है। ग्रहण क्षमता का विकास बल्गेरिया में 'सुपर लरनिंग' की प्रणाली चलती है। उसका वहां बहुत विकास हुआ है। डा० लाजरनाव ने इसका विकास किया और इस पद्धति के द्वारा शीघ्र-ग्रहण की पद्धति विकसित हुई। एक पूरा क्रम चलता था सजेस्टोलॉजी का। इसके लिए एक केन्द्र स्थापित किया गया और विद्यार्थी में इतनी क्षमता पैदा कर दी कि वह वर्ष भर का कोर्स एक महीने में पूरा कर देता है। वह दिन भर में ५००-७०० शब्द कण्ठस्थ कर लेता है। इसका विकास वहां किया गया । जीवन-विज्ञान में भी इसबात पर ध्यान दिया गया कि विद्यार्थी में ग्रहण करने की क्षमता बढ़ाई जाए। जैन साहित्य में शिक्षा के बारे में अनेक सूत्र आए हैं। इसे दूसरे शब्दों में 'अवधान विद्या' कहा जाता है। अवधान में क्षिप्र ग्रहण ही नहीं होता, बहुविध-ग्रहण भी होता है, सूक्ष्म-ग्रहण भी होता है। उपाध्याय यशोविजयजी 'अवधान विद्या' के निपुण प्रयोक्ता थे। एक बार एक-सी सौ कटोरियां रख दी गईं। एक व्यक्ति एक-एक कटोरी को बजाता और अवधानकार उन कटोरियों के शब्दों को ग्रहण करते । सौ कटोरियों का बजाना पूरा हुआ। फिर परीक्षा ली गई। बीच में से किसी भी कटोरी को बजाकर पूछा गया कि उसकी संख्या कौनसी है ? आवाज के आधार पर संख्या बताई, वह सही निकली। यह है सूक्ष्मग्रहण की विधि । इसी के आधार पर आवाज का अलग-अलग ग्रहण हो गया। क्षिप्रग्राही, सूक्ष्मग्राही, बहुविधग्राही-ये सारे बौद्धिक विकास के परिचायक हैं। इससे अधिक महत्वपूर्ण है चरित्र के विकास की ओर ध्यान देना चरित्र-विकास के कुछ पहलू हैं। नैतिकता का विकास, व्यवहार-शुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
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