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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग अर्थवत्ता क्या रही ? उसकी व्यर्थता ही दृष्टिगोचर होती है। इसका कारण यह है कि धर्म का उपदेश करने वाले और सुनने वाले बहुत हैं, पर कोई व्यक्ति कोर्स पूरा नहीं करता। कोर्स पूरा किए बिना वह लाभदायक नहीं होता।
धर्म के कोर्स के तीन घटक हैं-श्रवण, मनन और निदिध्यासन। सुनना, मनन करना और फिर उसका ध्यान या अभ्यास करना। 'सवणे नाणे विष्णाणे पच्चक्खाणे'- यह पूरा कोर्स है। सुनो, जानो, विवेक करो और प्रत्याख्यान करो-हेय को छोड़ो। आज केवल मुना जाता है. अभ्यास नहीं किया जाता। अभ्यास की बात छूट गइ। इसीलिए समस्याएं बढ़ रही हैं।
आदमी प्रयोग करना भूल गया, इसलिए धर्म के द्वारा कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। यही बात शिक्षा के क्षेत्र में रही है। शिक्षा में भी सैद्धातिक पक्ष मजबूत है, पर प्रायोगिक बात नहीं है। सिद्धांत और प्रयोग-दोनों अभिन्न हैं। इनको अलग नहीं किया जा सकता। शिक्षा की सार्थकता : व्यावहारिक सामंजस्य
बौद्धिक विकास के लिए जैसे कंठस्थ किया जाता है, अभ्यास किया जाता है, वैसे ही व्यक्तित्व के विकास के लिए भी कुछ अभ्यास करना आवश्यक हो जाता है। विद्यार्थी को अन्तत: समाज में आना है, जीना है, उसे सामाजिक प्राणी बनना है। उसे समाज के साथ संगति बिठाने के लिए, राष्ट्र के लिए प्रामाणिक व्यक्ति साबित होने के लिए, उसे इसी जीवन से अभ्यास करना होता है। विद्यार्थी-जीवन में बालक अपने आपको विद्यार्थी मानकर चलता है। उसका कोई लक्ष्य नहीं होता। शिक्षा के क्षेत्र में मजिल नहीं होती। शिक्षा तो मार्ग है। मजिल तो आखिर समाज है। वहां उसे रहना है। उसके साथ उसे संगति बिठानी है। ऐसा होने पर ही उसकी सार्थकता होगी। जहां समाज में हजारों लोग होते हैं, वहां संवेगों का सामंजस्य अत्यंत आवश्यक होता है। तभी आदमी शातिपूर्ण जीवन जी सकता है। जहां संवेगों का सामंजस्य नहीं होता, वहां जीवन दूभर बन जाता है। परिवार में भी यदि संवेगों का सामंजस्य नहीं होता है तो रोज की लड़ाई, कलह होता रहता है। पति-पानी भी सुख से नहीं जी सकते। सुख से जीने के लिए उन्हें संवेगों पर नियन्त्रण पाना है।
कलह, संघर्ष, वैमनस्य आदि इसलिए होते हैं कि व्यक्ति अपने संवेगों पर नियन्त्रण नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति में पारिवारिक और सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, सुखी नहीं रह सकता। एक-दूसरे के संवेगों को सहन
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