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शिक्षा और जीवन मूल्य
१२३ मूल्य बोध की चेतना जागे
मूल्य-बोध की चेतना को जगाना परम आवश्यक है। एक मूल्य से कभी समाज नहीं चलता। केवल सामाजिक मूल्यों की पूर्ति से समाज नहीं चलता। इसी प्रकार केवल शारीरिक, आर्थिक या बौद्धिक मूल्यों की पूर्ति से कभी समाज नहीं चलता और केवल आध्यात्मिक मूल्यों के आधार पर भी समाज नहीं चलता। समाज एक संगठित और समन्वित तत्त्व है। उसके लिए सभी मूल्यों की पूर्ति जरूरी है। आदमी एकांगीदृष्टि से कह देता है कि समाज अर्थ की पूर्ति से सुव्यवस्थित चल सकता है। सारा भार अर्थ पर डाल दिया जाता है। क्या अर्थ की पूर्ति करने वाले व्यक्ति में कला, संगीत और साहित्य के प्रति रुचि नहीं होती ? क्या उसमें अन्य आकांक्षा और कामना नहीं होती ? आदमी यन्त्र नहीं हैं उसको यन्त्र मानकर व्यवहार नहीं किया जा सकता। हमें उसके व्यवहार, संवेग और मौलिक मनोवृत्तियों के आधार पर उसके साथ व्यवहार करना होगा। वह किसी यंत्र का पुर्जा नहीं है, ईंट-पत्थर नहीं है कि जहां चाहे वहां फिट कर दे। वह चेतनावान् प्राणी है, उसकी अपनी रुचि है, आकांक्षा और कामना है। ऐसी स्थिति में एकांगी-दृष्टि से नहीं सोचा जा सकता। मूल्यों की उपेक्षाः परिणाम
___ साम्यवादी प्रणाली में मूल्यों की उपेक्षा की गई, उसका परिणाम यह आया कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाया। अनेक समस्याएं उभरीं। जिन लोगों ने प्रजातात्रिक प्रणाली में भी आर्थिक मूल्यों को अतिरिक्त मूल्य दिया, वहां असंतोष और पागलपन बढ़ा। जब अर्थ या भोग का मूल्य अतिरिक्त होता है तब पागलपन बढ़ता है और एक प्रकार की ऊब पैदा होती है। जहां अध्यात्मिक मूल्यों को अतिरिक्त स्थान दिया जाता है वहां गरीबी बढ़ सकती है, परतंत्रता भी आ सकती है। अध्यात्म या भक्ति में रत रहने वाला सोच सकता है, यही सार है। कमाने की या खेती की जरूरत ही क्या है ? वह दिन-रात भक्ति में लीन रहता है। कैसे चलेगा? वह परिवार का पोषण कैसे करेगा ?
जहां अतिक्रमण होता है वहां समस्याएं उत्पन्न होती हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि आदमी का दृष्टिकोण यथार्थवादी बने। जिसका; जिस स्तर पर, जितना मूल्य हो उसको उतना मूल्य दिया जाए। शरीर के स्तर पर जिसका मूल्य है उसकी तुलना शरीर के स्तर पर ही हो सकती है और अध्यात्म के स्तर पर जिसका
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