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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग परिष्कार के तत्त्व
__ भारत के ऋषि-मुनियों, आचार्यों और साधकों ने अतीत में ऐसे तत्त्वों को खोजा था, जिनके द्वारा संवेगों को परिष्कृत किया जा सके। यह बात केवल ग्रन्थों के आधार पर नहीं, किंतु आज हम अनुभव के आधार पर भी कह सकते हैं। हमने प्रयोग किये, अनुभव आया कि ऐसा परिवर्तन निश्चित रूप से आ सकता है। संवेग बदलते हैं, उनका परिष्कार होता है, संवेदनशीलता विकसित होती है। अध्यात्म के क्षेत्र में ऐसी घटनाओं का प्रचुर उल्लेख है। सभी धर्म-सम्प्रदायों में ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिनकी संवेदनशीलता अपूर्व थी।
जिसमें संवेदनशीलता का विकास होता है, उसके मन में किसी प्रकार का छलावा नहीं होता। जब संवेदनशीलता जाग जाती है, तब समाज को सुधरने में समय नहीं लगता। नैतिकता, प्रामाणिकता और चरित्र-विकास सहज होने लगता
जब तक भारत में संवेदनशीलता की प्रखरता थी, तब तक उसका चित्र बहुत सुन्दर था। बाहर से आने वाले यात्रियों ने भारत का चित्र प्रस्तुत करते हुए लिखा था-भारत में घरों के ताले नहीं लगते। दरवाजे खुले रहते हैं। किसी को यदि चरित्र का शिक्षण लेना हो तो वह भारत आए और यहां से वह शिक्षा प्राप्त करे। ऐसा चित्र संवेदनशीलता के विकास से ही सम्भव है। जैसे-जैसे संवेदनशीलता कम हुई, वैसे-वैसे संवेग प्रबल हुए और सारी अनैतिकता बढ़ी।
शिक्षा जगत् का बहुत बड़ा काम है-संवेदनशीलता को विकसित करना। मूल तत्त्व की विस्मृति
आज के विद्यालयों की विशाल योजनाएं हैं। उसमें भाषा, साहित्य,कला, विज्ञान, इतिहास, भूगोल-ये सारे विषय सिखाए जाते हैं, पर इनके साथ भावों के परिष्कार की बात नहीं है। इसे आवश्यक भी नहीं माना गया है। आज आवश्यक माना जाता है भाषा, साहित्य, कला आदि का अध्ययन; जिससे अच्छी जीविका कमाई जा सके, बौद्धिक स्तर ऊंचा उठ सके, दूसरे राष्ट्रों के साथ अच्छा सम्पर्क स्थापित किया जा सके। व्यवसाय और सम्पर्क का विकास किया जा सकता है किन्तु मूल में जो चरित्र की कमी है, वह अन्य सब चीजों को खोखला बना डालती है। जब चरित्र नहीं होता तब नींव कमजोर हो जाती है।
शिक्षाशास्त्रियों और शिक्षानीति का निर्धारण करने वालों ने अनेक योजनाएं बनाईं, अनेक प्रारूप तैयार किए, पर किसी में भी चरित्र-विकास की योजना
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