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________________ ९६ जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग देता है, स्व-केन्द्र और स्वार्थ-केन्द्रित रहता है तो उसके स्वार्थ के कारण पूरे समाज को नुकसान होता है और वह स्वयं भी उस नुकसान से बच नहीं सकता। आचार्य भिक्षु ने इस तथ्य को समझाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण दृष्टांत दिया। चार ब्राह्मणों को एक गाय दान में मिली। चारों का गाय में समुचित भाग था। चारों ने सोचा, इसका बंटवारा कैसे किया जाय ? सोचा, उपाय निकाला। यह तय हुआ कि एक-एक दिन प्रत्येक व्यक्ति गाय को दुहे और दूध का उपभोग करे। पहले दिन जिसकी बारी थी उसने दूध दुहा और सोचा, मैं इस गाय को क्यों दाना-पानी दूं। मेरे पास तो यह कल रहेगी नहीं। कल जिसकी बारी है वह इसे दाना-पानी देगा। अगले दिन वाले ने भी दूध दुह लिया और दाना-पानी देने के समय उसी प्रकार सोचा, जैसे पहले व्यक्ति ने सोचा था। चारों ने गाय का दूध दुहा पर उसे चारा-पानी नहीं दिया। धीरे-धीरे गाय दुबली हो गयी, दूध सूख गया। गाय के मरने की स्थिति आ गई। परस्परता की श्रृंखला जिस समाज में ऐसा चिंतन होता है कि दूध दुहा जाय, पर खिलाया-पिलाया न जाए, वह समाज विघटित हो जाता है, यह स्वार्थ-परायणता है। इस स्वार्थ का परमार्थीकरण परस्परता के सिद्धान्त पर किया जा सकता है। एक-दूसरे को काट कर कोई भी आदमी जी नहीं सकता। एक व्यक्ति दूसरे कितने व्यक्तियों से जुड़ा होता है-कपड़ा बुनने वाला भी चाहिए, कपड़े सीने वाला और धोने वाला भी चाहिए, मोटरकार चलाने के लिए तेल भी चाहिए, बीमार के लिए दवाई और डाक्टर भी चाहिए, दवाई बनाने वाला और बेचने वाला भी चाहिए। परस्परता की बहुत लंबी श्रृंखला है। आदमी एक दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं कि उनका विस्तार सीमा पार गया है। इस स्थिति में जो व्यक्ति केवल अपनी ही बात सोचता है, अपना ही स्वार्थ देखता है, दूसरों की ओर से आंखें मूंद लेता है, ऐसा अज्ञान के कारण होता है, इसमें शिक्षा भी कारण बनती है। क्योंकि उसने परस्परता की चेतना को जगाया नहीं। दूसरा घटक : संवेदनशीलता सामाजीकरण का दूसरा घटक है-संवेदनशीलता का विकास। जब तक यह सूत्र नहीं जुड़ता, तब तक सही अर्थ में समाज बनता ही नहीं। संवेदनशीलता का अर्थ है- एक दूसरे के कष्ट में सहभागिता की अनुभूति। जब यह समाज में आती है तब नैतिकता और प्रामाणिकता का विकास होता है और क्रूरता कम होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
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