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________________ पर्वधर्म का बढ़ा प्रदर्शन क्रियाकांड अनगिन हैं। नित्यधर्म हो रहा उपेक्षित छिन्न-भिन्न जीवन है। अत्यावश्यक है यह चिंतन धर्माचार्यों द्वारा॥ जाग्रत धर्म हमारा॥ जीवित धर्म हमारा॥ आज सबसे बड़ी अपेक्षा यही है कि आचार को सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त हो। धर्म का यह पक्ष जितना उज्ज्वल होगा, जीवन उतना ही अधिक सार्थक बन सकेगा। अणुव्रत उपासना को गौण रखता हुआ व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन में आचार-धर्म को प्रतिष्ठित करने का उपक्रम है। उपासना को गौण करने से मेरा तात्पर्य आप समझते ही होंगे। कौन व्यक्ति किस धर्म-संप्रदाय की उपासना-पद्धति में विश्वास करता है, इस बात को अणुव्रत महत्त्व नहीं देता। एक मंदिर में जानेवाला अणुव्रती बन सकता है तो एक मस्जिद में जानेवाला भी अणुव्रती बन सकता है। एक जैन अणुव्रती बन सकता है तो एक बौद्ध भी अणुव्रती बन सकता है। इससे भी आगे जो व्यक्ति किसी धर्म-संप्रदाय की उपासना-पद्धति में विश्वास नहीं करता, वह भी अणुव्रती बन सकता है। एक नास्तिक एवं कम्यूनिस्ट भी अणुव्रती बन सकता है। अपेक्षा इतनी-सी है कि उसकी आचार-धर्म में निष्ठा हो। मैं मानता हूं, यह आचारधर्म की प्रतिष्ठा ही धर्म की वास्तविक प्रतिष्ठा है। इसके माध्यम से ही स्वस्थ समाज संरचना परिकल्पना आकार ग्रहण कर सकती है। संस्कृति को गौण न करें ऊपरी क्रियाकांड गौण हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति अपनी संस्कृति भी गौण कर दे। हालांकि दूसरी-दूसरी संस्कृतियों के अच्छे संस्कारों को ग्रहण करना कोई गलत बात नहीं है, तथापि अपने अच्छे संस्कार छोड़कर गलत संस्कार अपनाना कहां की समझदारी है? कोई संस्कार छोड़ने या ग्रहण करने में व्यक्ति का विवेक जाग्रत रहना चाहिए। प्रवाहपाती बनना या अंधानुकरण करना उचित नहीं है। आज मैं जैनों को देखता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि वे अपने जैनत्व के संस्कार भूल रहे हैं। उनके जीवन में अधिकतर संस्कार जैनत्व के अनुकूल नहीं हैं। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसकी हड्डियां ले जाकर गंगा में डालते हैं। यह कार्य यदि इसलिए किया जाता है कि हमारे पारिवारिक सदस्य की - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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