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समय बीता। खेती पकी। और एक दिन चारण ने विस्फारित आंखों से देखा, सचमुच जितनी दूर उस अनजान व्यक्ति (राजा) ने ऊमरे काटे थे, उतनी जमीन में अनाज की जगह मोती चमक रहे हैं। यह दुर्बलता है ___ बंधुओ! चारण की यह कहानी पुरुषार्थ की कहानी है। जैन-धर्म यों तो स्वभाव, काल, नियति आदि सभी तत्त्व मानता है, पर उसका अधिक बल पुरुषार्थ पर ही है। इसी लिए उसे पुरुषार्थवादी दर्शन कहा जाता है। जो लोग जैन होकर भी भैरूजी, पीरजी, रामदेवजी आदि लौकिक देवताओं को मनाते हैं, उनका सहयोग चाहते हैं, वे एक प्रकार की दुर्बलता का परिचय देते हैं। वैसे सामुदायिक जीवन में एक-दूसरे का सहयोग लेना-देना एक अलग बात है, पर बिना श्रम/पुरुषार्थ का खाना उचित नहीं है। बहुत-से लोग तो आजकल ऐसे भी हैं, जो दो-चार पैसों का प्रसाद चढ़ाकर देवी-देवताओं से लाखों का धन पाना चाहते हैं। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या यह देवी-देवताओं को ठगने का प्रयत्न नहीं है; धोखा देने की मानसिकता नहीं है; अपनी आत्मा के साथ प्रवंचना करना नहीं है। धर्म के दो रूप
धर्म के दो रूप हमारे सामने स्पष्ट हैं-पर्वधर्म और नित्यधर्म। उपवास आदि तपस्या, स्वाध्याय, ध्यान, मंत्र-जाप, प्रभु-स्मरण, पूजा-पाठ, संतदर्शन वगैरह पर्वधर्म हैं। क्षमा, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम आदि नित्यधर्म हैं। पर्वधर्म की आराधना व्यक्ति समय-समय पर ही कर सकता है, हर क्षण नहीं कर सकता। इसलिए वह अशाश्वत है। नित्यधर्म की आराधना व्यक्ति अपने जीवन के क्षण-क्षण में कर सकता है। उसके लिए समयविशेष को नियोजित करना उसके लिए अपेक्षित नहीं है। हालांकि पर्वधर्म-उपासना कोई निकम्मा तत्त्व नहीं है, पर नित्यधर्म-आचार ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। यदि आचार के साथ उपासना भी चलती है तो कोई कठिनाई नहीं, बल्कि सोने में सुगंध की बात है, पर आचार को सर्वथा गौण करके केवल उपासना और क्रियाकांडों को सब-कुछ मान लेना कतई उचित नहीं है। इससे व्यक्ति का अपेक्षित हित नहीं हो सकता। आज के व्यक्ति का जीवन छिन्न-भिन्न-सा हो रहा है, इसका कारण यही तो है । मैंने एक जगहं कहा है
धर्म का स्वरूप
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