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________________ आत्म-उपासना के सिद्धांत का बहुत गहराई से विवेचन किया है। शंकराचार्य ने भी अपने शंकरभाष्य में लिखा है-स्वस्वरूपानुसंधानं भक्तिः। अर्थात अपने आत्मस्वरूप का अनुसंधान करना ही भक्ति है, उपासना है। ___ व्यक्ति औरों की पूजा क्यों करता है? कुछ पाने के लिए ही तो? पर मैं मानता हूं कि औरों से पाने की आकांक्षा वही रखता है, जिसे अपने पुरुषार्थ पर भरोसा नहीं होता। जिसे अपने पुरुषार्थ पर भरोसा होता है, वह कभी दूसरे से कुछ भी पाने की आकांक्षा नहीं रख सकता। फिर बहुत सही तो यह है कि व्यक्ति को कुछ मिलता है तो वह उसके स्वयं के पुरुषार्थ से ही मिलता है, स्वयं के पुरुषार्थ के भरोसे से ही मिलत है। दूसरा तो मात्र निमित्त होता है। राजा तीन-मंजिला महल बनवा रहा था, पर महल पूरा बनता, उससे पूर्व ही ढह गया। उसने दूसरी बार बनवाना शुरू किया, किंतु फिर ढह गया। वह चिंतित हुआ। उसने कुलदेवी की आराधना की। कुलदेवी प्रकट हुई। उसने स्मरण करने का कारण पूछा। राजा ने अपनी समस्या रखते हुए उपाय पूछा। देवी बोली-'इसका एक उपाय है। तुम अपनी नगरी के भी लोगों को अपने हाथ से कुछ-न-कुछ दान दो। जब तुम सभी लोगों को दे चुके होगे, कोई शेष नहीं बचा होगा, उसके बाद तुम्हारा कार्य निर्विघ्न हो जाएगा।' राजा ने उसी दिन दान देने की उद्घोषणा करवा दी। राजा दार दे तो कौन न ले? प्रातः से ही राजमहल के सामने भीड़ जमा होने लगी राजा अपने हाथ से हर व्यक्ति को कुछ-न-कुछ दान देता। कई दिन तक लगातार यह क्रम चलता रहा। फिर धीरे-धीरे भीड़ कम होने लगी। इस क्रम में एक दिन ऐसा भी आया, जब एक भी व्यक्ति दान लेने के लिए उपस्थित नहीं हुआ। राजा ने सोचा कि देवी के कथनानुसार मैंने नगरी वे सभी लोगों को दान दे दिया है, अब निश्चय ही मेरी इच्छा पूरी होगी उसने पुनः महल के निर्माण का कार्य शुरू करवाया। पर यह क्या ! महल पूरा होने को आया कि पुनः ढह गया। राजा ने पुनः कुलदेवी की आराधना की। देवी ने दर्शन दिए। राजा ने सारी स्थिति निवेदित की। देवी ने कहा-'तुमने अपनी दृष्टि से सबको दान दे दिया है, पर अभी तक एक व्यक्ति शेष रह गया है। उसने तुम्हारे हाथ से दान नहीं लिया है। जब तक तुम उसे कुछ नहीं दे देते, तब तक तुम्हारा काम बनेगा नहीं।' राजा ने पूछा-'मां! कौन है वह व्यक्ति ?' देवी बोली-'उत्तर दिशा की बाहरी बस्ती - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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