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मूलभूत बात यह है कि जब तक धर्म रूढ़ि के रूप में चलता रहेगा, तब तक उससे अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। धर्म का जीवंत
और जाग्रत रूप ही वास्तव में धर्म है और वही व्यक्ति के लिए शांति का साधन बनता है। जो लोग धर्म का वास्तविक स्वरूप समझकर उसका सही-सही उपयोग करते हैं, उनके जीवन में शांति के खिलते और महकते फूल देखे जा सकते हैं, पर कठिनाई यह है कि धर्म को सही रूप में जानने समझने की जिज्ञासा बहुत कम लोगों में मिलती है। फिर कुछ लोग उसे सही रूप में समझ भी लेते हैं तो उसे आचरण के स्तर पर उतार नहीं पाते। ऐसी स्थिति में धर्म का फल उन्हें कैसे मिल सकता है? उपासना किसकी की जाए।
- कुछ लोग मुझसे पूछते हैं कि उपासना धर्म है या नहीं। इसका संक्षिप्त-सा उत्तर इतना ही है कि जो उपासना व्यक्ति की आत्मपवित्रता में हेतुभूत बनती है, आत्मशांति का साधन बनती है, वह निश्चय ही धर्म है। यदि वर्षों तक उपासना करने के पश्चात भी जीवन में पवित्रता उद्भूत नहीं होती है, आत्मशांति का अनुभव नहीं होता है तो मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ऐसी उपासना धर्म का हिस्सा नहीं है, धर्म नहीं है। फिर भले वह और कुछ भी क्यों न हो। ___ कुछ लोग मूर्ति की पूजा करते हैं। मैं इस पर कोई टिप्पणी करना नहीं चाहता, पर मेरा विश्वास जड़ पूजा में नहीं है। मैं चेतन का पुजारी हूं गुण-पूजा में विश्वास करता हूं। इससे भी आगे मैं तो यह भी कहता हूं लि अहमेव मयोपास्यः-मुझे स्वयं की उपासना करनी है। इसे कोई अहं स्मझ सकता है, पर तत्त्वतः यह अहं नहीं, अपितु अध्यात्म-साधना का एक रहस्यमय सूत्र है।
आपका प्रश्न होगा कि स्वयं की उपासना कैसी होती है। आप उपासना का अर्थ समझें। उपासना का अर्थ है-निकट रहना। स्वयं की उपासना का तात्पर्य है-स्वयं के निकट जाना। स्वयं के निकट कौन नहीं जाना चाहता? अध्यात्म-साधना का उद्देश्य स्वयं के निकट जाना ही तो है, आत्म-साक्षात्कार करना ही तो है। इससे भिन्न अध्यात्म-साधना का कोई उद्देश्य हो नहीं सकता, पर मुझे लगता है कि अधिकतर लोग यह तथ्य भूल रहे हैं। इसी लिए वे विजातीय तत्त्वों की निकटता पाने का प्रयास कर रहे हैं। इस भूल का संशोधन होना अत्यंत आवश्यक है। जैनचार्यों ने
धर्म का स्वरूप
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